1975 में इमरजेंसी के दौरान संविधान में किए गए यह बड़े बदलाव, लिए गए विवादास्पद फैसले
1975 में लागू हुई इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर था। इस दौरान 42वें संविधान संशोधन के जरिए नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया और सरकार ने अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए कई बदलाव किए। इस ब्लॉग में जानें, इमरजेंसी के दौरान हुए हर बड़े संवैधानिक संशोधन, उनका सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव, और कैसे 44वें संशोधन ने लोकतंत्र को फिर से मजबूत किया।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का समय ऐसा है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा की। यह समय भारतीय राजनीति, समाज और संविधान में ऐसे बदलावों का गवाह बना जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। संविधान में संशोधन से लेकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने तक, इस दौर ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को हिलाकर रख दिया।
इमरजेंसी की घोषणा का कारण
25 जून 1975 की रात, तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू कर दिया। इसका तात्कालिक कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराना था। हालांकि, गहराई से देखा जाए तो यह निर्णय राजनीतिक अस्थिरता और विपक्ष के बढ़ते दबाव का नतीजा था।
संविधान में बड़े बदलाव
42वां संविधान संशोधन (1976) आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन को सबसे बड़ा और विवादित संशोधन माना जाता है। इसे "मिनी संविधान" भी कहा गया। इसके तहत कई ऐसे बदलाव किए गए जिनका उद्देश्य सरकार की शक्ति को और मजबूत बनाना था।
मूल अधिकारों में कटौती: अनुच्छेद 19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) को स्थगित कर दिया गया। नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
निर्णायक शक्तियों का हस्तांतरण: राज्यों से केंद्र के अधिकार बढ़ा दिए गए। यह संघीय ढांचे के विपरीत था।
मूल कर्तव्यों की शुरुआत: संविधान में नागरिकों के लिए मूल कर्तव्यों (Fundamental Duties) का प्रावधान किया गया।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल: इसे 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया।
अनुच्छेद 31C में बदलाव
अनुच्छेद 31C को मजबूत करते हुए इसे मूल अधिकारों से ऊपर रखा गया। इसका मतलब यह था कि अगर किसी कानून का उद्देश्य समाजवाद या राज्य नीति के निदेशक तत्वों को बढ़ावा देना है, तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
न्यायपालिका पर नियंत्रण
आपातकाल के दौरान न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी प्रहार किया गया। जजों की नियुक्ति और उनके अधिकार सीमित कर दिए गए। सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट संकेत दिया गया कि वह सरकार के खिलाफ फैसले न सुनाए।
मीडिया पर सेंसरशिप
प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लागू कर दी गई। किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पहले सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया। इसके तहत कई अखबारों और पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया।
आपातकाल का परिणाम
विरोध और गिरफ्तारी: हजारों विपक्षी नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
जबर्दस्ती नसबंदी अभियान: संजय गांधी के नेतृत्व में परिवार नियोजन के नाम पर जबर्दस्ती नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसने जनता में आक्रोश पैदा कर दिया।
लोकतंत्र पर सवाल: इमरजेंसी के दौरान देश में लोकतंत्र को लगभग समाप्त कर दिया गया था। यह समय एक तानाशाही के रूप में जाना गया।
जनता के बीच इमरजेंसी को लेकर गुस्सा और असंतोष बढ़ता गया। मार्च 1977 में जब आम चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया। यह भारत के लोकतंत्र की जीत थी। इमरजेंसी के बाद 44वें संविधान संशोधन (1978) के जरिए अनुच्छेद 352 में बदलाव किया गया ताकि आपातकाल की घोषणा की शर्तें और सख्त हो जाएं। इसके साथ ही, यह सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में इस प्रकार का दुरुपयोग न हो।
इमरजेंसी का समय भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला अध्याय था, लेकिन इसने देश को यह सिखाया कि जनता की शक्ति किसी भी सरकार से बड़ी है। यह घटना हमारे संविधान की ताकत और उसकी कमजोरियों को उजागर करती है। शास्त्रों में कहा गया है, "सत्य की विजय होती है," और इमरजेंसी के बाद जनता ने इस कथन को सत्य साबित कर दिखाया।