सतयुग में बसे जागेश्वर धाम में विनाश की दस्तक, देवदार के पेड़ लाएंगे प्रलय
जिस वन में शिव को मिला श्राप
जहां से लकड़ी उठाना भी है पाप
जिस धाम का सदियों पुराना है इतिहास
वो स्थान जहां है महादेव का वास
शिव के इस दारुका वन को किसकी नज़र लग गयी?
देवदार के ये वृक्ष क्या अब दारुक वन में नहीं रहेंगे?
क्या देवदार कटने से आएगी देवभूमि पर बड़ी मुसीबत? क्या सदियों पुराने देवदार के पेड़ हटेंगे तो आएगा प्रलय?
जब से जागेश्वर के दारुका वन में देवदार के पेड़ों पर लाल रंग के निशान लगे हैं, हर किसी के मन में तरह-तरह के सवाल जन्म ले रहे हैं। विरोध की चिंगारी उत्तराखंड से होते हुए देश भर में फैल गयी है। सोशल मीडिया में ये चिंगारी शोला बनती जा रही है।
देवदार के पेड़ों पर संकट के बादल कैसे गहराए ये समझना बड़ा ज़रूरी है, तभी आप पूरा मामला सही से जान पाएंगे। अक्टूबर 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड में शिव के सबसे अनूठे जागेश्वर धाम के दर्शन किए। यहीं से वो पिथौरागढ़ की ओर रवाना हुए। प्रधानमंत्री की यात्रा के बाद जागेश्वर के विकास की बात उठने लगी, रास्ते सुगम बनाने का फैसला किया गया। केंद्र की ख्वाहिश से राज्य सरकार ने जागेश्वर धाम का मास्टर प्लान तैयार कर लिया। इसी मास्टर प्लान के तहत लोक निर्माण विभाग ने आरतोला से जागेश्वर जाने वाले 3 किलोमीटर के रास्ते में आने वाले 1000 देवदार के वृक्षों को चिन्हित भी कर लिया। लोक निर्माण विभाग इन देवदार के वृक्षों को काटकर यहां टू लेन सड़क बनाने की तैयारी कर रहा है।
दरअसल जिस रास्ते को संकरा बताया गया है, जिन पेड़ों पर विकास के नाम की आरी चलाने का फरमान जारी हुआ है। वो विकास नहीं विनाश का आरम्भ है। सच बताएं तो यही रास्ता जागेश्वर धाम की असल खूबूसरती है। पिथौरागढ़-अल्मोड़ा मुख्य मार्ग से नीचे उतरते ही जागेश्वर धाम के रास्ते की ये हरियाली हर नए आगंतुक का मन मोह लेती है। देवदार के वृक्षों से तैयार ये हरियाली किसी राही के मन में आध्यात्म जगाती है, तो किसी के मन में वैराग का भाव भर देती है।
पुराणों की बात करें तो भष्मधारी भोलेनाथ ने देवदार के इसी वन में आकर डेरा डाला, मानसखंड के 59वें अध्याय की शुरूआत में ऋषि वेदव्यास इसी दारुका वन के बारे में बताते हैं कि यहीं शिव ने अपने योगी रूप को प्राप्त किया था। माना तो ये तक जाता है यही वो धाम है जहां से सबसे पहले शिवलिंग की पूजा करने का नियम शुरू हुआ। पुराणों के अनुसार भगवान शिव और सप्तऋषियों ने इस तपोभूमि पर आकर तपस्या की। यहीं शिव को श्राप मिला। मान्यता ये भी है कि यहीं पर शिव जाग्रत हुए, इसलिए इस धाम का नाम जागेश्वर पड़ा। शिव का ये अद्भुत धाम करीब 125 छोटे-बड़े मंदिरों का समूह है।
माना जाता है त्रेतायुग में लव-कुश अपने पिता श्रीराम से किए युद्ध का प्रायश्चित करने पहुंचे। इसी कुंड में लव और कुश ने शिव के आह्वान के लिए कई दिनों तक यज्ञ किया। महाभारत के युद्ध के। बाद पांडवों के यहां पहुंचने की कथाएं सुनी जाती हैं। आदिगुरू शंकराचार्य के पहुंचने की बात भी मानी जाती है। विश्वास है कि यहीं से होते हुए आदिगुरू केदारनाथ धाम की यात्रा को गए।
जागेश्वर के संपूर्ण इलाके में सूरज की रोशनी छन-छनकर नीचे तक आती है। इसलिए इस इलाके में ज़्यादा ठंड महसूस होती है। जागेश्वर मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर की नक्काशी कत्यूरी राजाओं के दौर की दिखती है। तो मंदिर के अंदर मौज़ूद चंद वंशीय राजा दीपचंद, निर्मल चंद, पवन चंद की प्रतिमा कुछ और साक्ष्य देने का इशारा करती हैं।
सोचिए ऐसा अद्भुत धाम है जागेश्वर। जहां जाने पर एक साथ कई देवों के दर्शन हो जाते हैं। इसलिए इसे उत्तराखंड के पाचंवें धाम की संज्ञा भी प्राप्त है। धार्मिक द्रष्टि से दारुका वन सोचिए कितना महत्वपूर्ण है। स्थानीय लोग यहां लकड़ी उठाना तक पाप समझते हैं। ऐसे में कोई उनकी आस्था पर आरी चलाएगा तो उन पर क्या गुजरेगी। फिलहाल चुनावों को देखते हुए देवदार के पेड़ काटने का मामला मुख्यमंत्री धामी के आदेश के बाद रिव्यू में चल रहा है। लेकिन कोई नहीं जानता चुनावों की चालबाज़ी के बाद फिर से दारुका वन को विकासरुपी विनाश की नज़र लग जाए।