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सियासी ज़मीन खोती द्रविड़ पार्टियाँ, हिन्दी और तीन-भाषा नीति विरोध के ज़रिए आग सुलगाने की कोशिश!

द्रविड़ पार्टियाँ अपने सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए हिन्दी और तीन-भाषा नीति का विरोध कर रही हैं, यह एक नई राजनीतिक रणनीति के तौर पर उभर रहा है। स्टालिन का विरोध और उसका प्रतिकार दक्षिण से ही होना नई राजनीति की ओर संकेत दे रहा है।
सियासी ज़मीन खोती द्रविड़ पार्टियाँ, हिन्दी और तीन-भाषा नीति विरोध के ज़रिए आग सुलगाने की कोशिश!
द्रविड़ पार्टियों की राजनीति हमेशा से क्षेत्रीय अस्मिता और संस्कृति के इर्द-गिर्द घुमा करती है, और अब यह पार्टियाँ एक बार फिर हिन्दी और तीन-भाषा नीति के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं। DMK, AIADMK सहित अन्य तमिलनाडु की पार्टियों ने अब तक हिन्दी और हिन्दुस्तान की परिकल्पना का खुलकर विरोध किया है। इनकी थ्योरी यह है कि हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में थोपना दक्षिण भारत की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के लिए खतरा पैदा कर सकता है। करूणानिधि से लेकर स्टालिन तक, बाप-बेटे ने अब तक इसी के इर्द-गिर्द ही राजनीति की है। उनका कहना है कि यह कदम केवल उत्तर भारत की भाषा और संस्कृति को बल देता है, जिससे दक्षिण भारत की भाषाओं और संस्कृति की अनदेखी हो सकती है। हिन्दी को लेकर द्रविड़ पार्टियाँ हमेशा से विरोध करती रही हैं, और इसका कारण उनका मानना है कि यह नीति दक्षिण भारतीय भाषाओं को कमजोर कर सकती है। उनके मुताबिक, राज्य सरकारों को अपने स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने का अधिकार होना चाहिए, और यदि हिन्दी को अधिकृत तौर पर थोपने की कोशिश की जाएगी, तो इससे एक नई राजनीतिक संकट उत्पन्न हो सकती है।

तीन-भाषा नीति पर मचा विवाद

नई शिक्षा नीति (NEP) में तीन-भाषा नीति के प्रस्ताव पर देशभर में बवाल मच गया है। इस नीति के तहत, छात्रों को अपनी मातृभाषा के अलावा दो अन्य भाषाएँ भी सीखनी होंगी, जिसमें एक हिन्दी और एक अन्य क्षेत्रीय भाषा शामिल करने का प्रावधान है। हालांकि, यह प्रस्ताव शिक्षा के स्तर पर समावेशिता और भाषाई विविधता को बढ़ावा देने का उद्देश्य बताकर पेश किया गया था, लेकिन इसका विरोध तेज हो गया है। विरोध करने वाले दलों का मानना है कि हिन्दी को अनिवार्य रूप से तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का प्रयास एकतरफा है और यह दक्षिण भारत सहित अन्य भाषाई क्षेत्रों के लोगों के लिए अस्वीकार्य हो सकता है। द्रविड़ पार्टियाँ, जिनमें DMK, AIADMK और अन्य क्षेत्रीय दल शामिल हैं, इसे तमिल, तेलुगू, मलयालम जैसी दक्षिण भारतीय भाषाओं पर आक्रमण मानते हैं। उनका कहना है कि इस नीति के माध्यम से हिन्दी को केंद्र में लाया जा रहा है, जो भारतीय संघवाद और भाषाई विविधता का उल्लंघन करता है।

त्रिभाषा नीति (प्रस्तावित) क्या है?

त्रिभाषा नीति के तहत छात्रों को तीन भाषाएँ सीखनी होती हैं:
1. राज्य की क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा (जैसे तमिल, तेलुगु, बंगाली आदि)।
2. एक अन्य भारतीय भाषा (जो हिंदी हो सकती है, लेकिन अनिवार्य नहीं)।
3. अंग्रेजी।

इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता को बढ़ावा देना और छात्रों को विभिन्न भाषाओं में दक्ष बनाना है। हालांकि, तमिलनाडु में इस नीति का विरोध ऐतिहासिक रूप से होता रहा है।
तमिलनाडु में विरोध क्यों?

तमिलनाडु में त्रिभाषा नीति का विरोध मुख्य रूप से इस डर से किया जा रहा है कि इससे हिंदी को राज्य में थोपा जा सकता है। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इसे "भाषाई जबरदस्ती" करार दिया और कहा कि राज्य अपनी दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) को नहीं छोड़ेगा। तमिलनाडु में पहले भी 1960 के दशक में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयासों का विरोध हुआ था।


दक्षिण भारत में विरोध का जोर

द्रविड़ पार्टियाँ हमेशा से हिन्दी के प्रसार का विरोध करती रही हैं, और उनका कहना है कि तीन-भाषा नीति के प्रस्ताव से दक्षिण भारत की भाषाओं की महत्ता कमजोर हो सकती है। इन दलों का तर्क है कि हर राज्य को अपनी स्थानीय भाषा को बढ़ावा देने का अधिकार होना चाहिए, और हिन्दी को अनिवार्य बनाने का कदम दक्षिण भारतीय अस्मिता को खतरे में डाल सकता है। वहीं, कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तीन-भाषा नीति का विरोध एक क्षेत्रीय राजनीति का हिस्सा है, जिससे द्रविड़ पार्टियाँ अपने समर्थकों को एकजुट करने की कोशिश कर रही हैं। उनका कहना है कि यह कदम सियासी लाभ के लिए उठाया गया है, ताकि दक्षिण भारत में इन दलों का दबदबा कायम रखा जा

सियासी ज़मीन खोतीं द्रविड़ पार्टियाँ और रणनीति

द्रविड़ पार्टियाँ जैसे DMK, AIADMK और अन्य क्षेत्रीय दल अपनी सियासी जमीन खोते हुए देख रहे हैं। इन दलों की दो USP रही है: पहला हिन्दी-हिन्दी पट्टी का विरोध और दूसरा रेवड़ी का ऐलान। अब बदले माहौल में इनका प्रभाव दक्षिण भारत में पहले जैसा नहीं रहा है। ऐसे में इन पार्टियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। इसी कारण ये दल एक बार फिर क्षेत्रीय अस्मिता के उभार की राजनीति पर उतर आए हैं। हिन्दी और तीन-भाषा नीति का विरोध इन पार्टियों के लिए एक मौका है, जिससे वे खुद को फिर से प्रासंगिक बना सकती हैं। यह मुद्दा न केवल राज्य भाषा की पहचान से जुड़ा हुआ है, बल्कि यह उन राजनीतिक दलों के लिए एक अवसर भी बन चुका है जो अपनी पहचान को बचाए रखने के लिए केंद्र सरकार से टकराव की राह पर चल रहे हैं। इन द्रविड़ पार्टियों का उद्देश्य इस विरोध के जरिए न सिर्फ अपने समर्थकों को एकजुट करना है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में अपनी ताकत को फिर से स्थापित करने की कोशिश भी है। इसके अलावा, यह उन्हें दक्षिण भारतीय राज्यों के मतदाताओं के बीच अपनी स्थिति को मजबूती से रखने में मदद करता है।

स्टालिन को पहली बार दक्षिण से ही मिल रही चुनौती!

भारत की भाषाई विविधता को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा नीति, जिसका उद्देश्य छात्रों को तीन भाषाओं में शिक्षित करना है; इसका एकतरफ़ा और आंख मूंदकर विरोध का प्रतिरोध अंदर से ही हो रहा है। इस मुद्दे पर कई बड़े नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। हिन्दी विरोध की राजनीति की अगुवाई कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन को तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलाई और आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने तगड़ा जवाब दिया है।

स्टालिन ने हाल ही में ट्वीट करते हुए केंद्र सरकार पर हमला बोला और कहा:
“दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना को एक सदी हो चुकी है, जिसका उद्देश्य दक्षिण भारतीयों को हिंदी सिखाना था। इतने सालों में उत्तर भारत में कितनी उत्तर भारत तमिल प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं हैं?
सच्चाई यह है कि हमने कभी यह नहीं कहा कि उत्तर भारतीयों को तमिल या किसी अन्य दक्षिण भारतीय भाषा को ‘संरक्षित’ करने के लिए सिखाया जाए। हमारा केवल एक ही निवेदन है कि हम पर हिंदी थोपना बंद किया जाए। यदि भाजपा-शासित राज्य तीन भाषाएँ या यहां तक कि 30 भाषाएँ सिखाना चाहते हैं, तो उन्हें करने दिया जाए! बस तमिलनाडु को अकेला छोड़ दें!”

एक अन्य ट्वीट में स्टालिन ने भारत की अन्य भाषाएँ और बोलियों को संबोधित किया और कहा:
मेरे प्रिय बहनों और भाइयों,
क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खड़िया, खोरठा, कुर्माली, कुड़ुख, मुंडारी और भी बहुत सी भाषाएँ अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।
एक समान हिंदी पहचान की धक्का देने वाली कोशिश ही प्राचीन मातृभाषाओं को मार डालती है। उत्तर प्रदेश और बिहार कभी "हिंदी हृदय भूमि" नहीं थे। उनकी असली भाषाएँ अब अतीत के अवशेष बन चुकी हैं।
तमिलनाडु इसका विरोध करता है क्योंकि हमें पता है कि इसका अंत कहाँ होता है।

हिन्दी विरोध की राजनीति में पहली बार हुआ जब स्टालिन का विरोध दक्षिण भारत के नेता ही कर रहे हैं। तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने पलटवार करते हुए कहा कि द्रमुक (DMK) सरकार पर पाखंड का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु सरकार सरकारी स्कूलों में तीसरी भाषा सीखने का अवसर नहीं देती, लेकिन निजी स्कूलों में यह सुविधा उपलब्ध है। स्टालिन कहते हैं कि वे किसी भाषा का विरोध नहीं करते, लेकिन सरकारी स्कूलों में हिंदी क्यों नहीं पढ़ाई जा सकती? क्या इसका मतलब यह है कि अगर कोई हिंदी सीखना चाहता है, तो उसे DMK नेताओं के निजी स्कूलों में दाखिला लेना पड़ेगा?

इसके अलावा, अन्नामलाई ने रुपये के प्रतीक (₹) को तमिल लिपि के 'ரூ' से बदलने के द्रमुक सरकार के फैसले की भी आलोचना की। उन्होंने इसे ध्यान भटकाने की राजनीति करार दिया और कहा कि राज्य में असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए यह किया गया है।

पवन कल्याण का सवाल: हिंदी फिल्मों से मुनाफा लेकिन हिंदी विरोध?
दूसरी तरफ़ आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और जनसेना पार्टी के प्रमुख पवन कल्याण ने भी तमिलनाडु के हिंदी विरोध पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने पूछा कि अगर तमिलनाडु के नेता हिंदी का इतना विरोध करते हैं, तो वे अपनी फिल्मों को हिंदी में क्यों डब करते हैं? पवन कल्याण ने आगे कहा कि तमिलनाडु के नेता हिंदी का विरोध करते हैं, लेकिन उनकी फिल्में हिंदी में डब होकर पूरे भारत में करोड़ों रुपये कमाती हैं। क्या यह दोहरा मापदंड या पाखंड नहीं है?

वहीं DMK प्रवक्ता ने इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि तमिलनाडु ने कभी भी हिंदी सीखने वालों का विरोध नहीं किया है, बल्कि हिंदी थोपने के खिलाफ हैं।

केंद्र सरकार का रुख

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्पष्ट किया है कि त्रिभाषा नीति के तहत किसी भी भाषा को जबरदस्ती नहीं थोपा जाएगा। हालांकि, तमिलनाडु को आशंका है कि हिंदी को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिससे राज्य की भाषाई स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।

आगे का रास्ता

इस मुद्दे का समाधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच रचनात्मक बातचीत और समझौते से हो सकता है। भाषा से जुड़ी राजनीति को टकराव का मुद्दा बनाने के बजाय, इसे छात्रों के हितों को ध्यान में रखकर हल करना आवश्यक है। त्रिभाषा नीति और तमिलनाडु में हिंदी थोपने का मुद्दा भाषाई विविधता, सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक समीकरणों से जुड़ा हुआ है। एम.के. स्टालिन, के. अन्नामलाई और पवन कल्याण जैसे प्रमुख नेताओं की बयानबाजी ने इस बहस को और तेज कर दिया है। हालांकि, अंततः यह बहस शिक्षा प्रणाली और छात्रों के भविष्य से जुड़ी हुई है, इसलिए सरकारों को व्यावहारिक समाधान निकालने की जरूरत है।

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