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Pitru Paksha 2024: श्राद्ध को गीता में क्यों बताया गया है व्यर्थ, जानिए श्राद्ध करना सही है या नहीं?

Pitru Paksha 2024: गीता को धर्म और आध्यात्मिकता का एक प्रमुख ग्रंथ कहा गया है, उसमें श्राद्ध और पिंडदान को क्यों व्यर्थ बताया गया है। क्या सच में श्राद्ध निरर्थक है, आइए अपने इस लेख जरिए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
Pitru Paksha 2024: श्राद्ध को गीता में क्यों बताया गया है व्यर्थ, जानिए श्राद्ध करना सही है या नहीं?
Pitru Paksha 2024: पितृ पक्ष जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में पितृ पक्ष के इन 16 दिनों का विशेष महत्व होता है। इस दौरान  लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म करते हैं। यह अवधि भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक रहती है। जो कि इस साल  17 सितंबर से शुरु होकर 2 अक्टूबर तक रहेगी। 
वैसे तो हिंदू धर्मग्रंथों में पितृपक्ष, श्राद्ध और पिंडदान का उल्लेख एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्म के रूप में किया गया है। लेकिन एक प्रश्न अक्सर उठता है कि गीता, जो कि धर्म और आध्यात्मिकता का एक प्रमुख ग्रंथ है, उसमें श्राद्ध और पिंडदान को क्यों व्यर्थ बताया गया है। क्या सच में श्राद्ध निरर्थक है, आइए अपने इस लेख जरिए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
श्राद्ध कर्म को लेकर क्या कहती है गीता?
गीता, जो महाभारत का एक भाग है, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है। गीता का प्रमुख संदेश कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग और आत्मा की अमरता पर आधारित है। श्रीकृष्ण ने गीता में आत्मा को अमर बताया है और कहा है कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। इसी कारण, गीता में यह कहा गया है कि मृत शरीर की पूजा, श्राद्ध या पिंडदान का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि असली श्रद्धा उस आत्मा के प्रति होनी चाहिए जो अमर है और अनंत है। गीता का यह दृष्टिकोण आत्मा के आध्यात्मिक सत्य को समझने पर जोर देता है।
गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक नंबर 19-20 में कहा गया है
"नायं हन्ति न हन्यते।"
अर्थात आत्मा न मारती है, न मारी जाती है।
इस श्लोक का तात्पर्य है कि आत्मा अनंत और अविनाशी है। इसलिए, मृत शरीर के प्रति कर्म करना व्यर्थ है। लेकिन अब इसका अर्थ यह नहीं है कि पितरों का सम्मान और श्रद्धा निरर्थक है। दरअसल गीता का श्राद्ध के प्रति दृष्टिकोण कर्म और श्रद्धा पर आधारित है। गीता के अनुसार, श्राद्ध केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं है, बल्कि यह हमारे पितरों के प्रति सम्मान और उपकार प्रकट करने का एक जरिया है। 
गीता के नौवें अध्याय के श्लोक नंबर 25 में कहा गया है
"यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।"
इस श्लोक का अर्थ है कि जो व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं। जो पितरों की पूजा करते हैं, वे पितरों को प्राप्त होते हैं। जो भूत-प्रेत की पूजा करते हैं, वे भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। और जो मेरी (भगवान कृष्ण की) पूजा करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझा रहे हैं कि मनुष्य को किस प्रकार की पूजा और उपासना के अनुसार फल मिलता है। श्राद्ध कर्म और पितरों की पूजा करने वाले व्यक्ति को अपने पितरों की कृपा प्राप्त होती है। इसका मतलब है कि जो लोग अपने पितरों का सम्मान और तर्पण करते हैं, वे उन्हें संतुष्ट कर पितृलोक प्राप्त कर सकते हैं।
हालांकि गीता में पिंडदान या फिर श्राद्ध के लिए कठोरता से मना नहीं किया गया है, बल्कि यह बताया गया है कि श्राद्ध केवल एक अनुष्ठान नहीं है, यह हमारे पूर्वजों के प्रति आभार प्रकट करने का एक साधन है, जो हमें फिर से इस धरती पर आने का मार्ग दिखाता है।

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