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घर छोड़ा, फल बेचे, कैंटीन चलाया, फिर बन गए Dilip Kumar, दिलचस्प है पूरी कहानी

जिस दिलीप कुमार ने अपने किरदार और फ़िल्मी अंदाज की बदौलत हिंदुस्तानियों के दिलों पर राज किया, वास्तव में फ़िल्मों में काम करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। और न ही उन्होंने कभी ये सोचा था कि वे यूसुफ़ सरवर खान से एक दिन दिल दिलीप कुमार बन जाएंगे । जी हाँ, आज की वीडियो में हम आपको यही बताने वाले कि दिलीप कुमार जिन्हें फ़िल्मों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वे कैसे फ़िल्मों में आए और यूसुफ़ सरवर खान से दिलीप कुमार कैसे बन गए ।
घर छोड़ा, फल बेचे, कैंटीन चलाया, फिर बन गए Dilip Kumar, दिलचस्प है पूरी कहानी
अगर आप सिनेमा के शौक़ीन हैं तो फिर आपको ये बताने की जरूरत नहीं कि ये अमर हो चुके डायलॉग्स किस फ़िल्म के हैं और इसे किसने बोला है । जब भी ये फ़िल्मी डायलॉग्स हमारे कानों में पड़ती हैं, तो सीधा हमें 50 और 60 के दशक के सैर पर ले जाती हैं । और एक ही चेहरा हमारी आंखों के सामने उभरता है । वो चेहरा है बॉलिवुड के ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार साहब का। ऐसे न जाने कितने फ़िल्मों के डायलॉग्स हैं जिसे दिलीप साहब ने अमर कर दिया है । दिलीप कुमार की जुबान से निकले डायलॉग और उनकी अदाकारी मानों फ़िल्मों में जान फूंक देती थी । उनके एक-एक डायलॉग पर सिनेमा हॉल तालियों से गूंज उठता था, सिल्वर स्क्रीन पर दिलीप साहब की जब एंट्री होती थी, तो दर्शकों की साँसें थम सी जाती थी । दिलीप साहब को जादूगर कहा जाता था, और वे अभिनय नहीं मानो पर्दे पर जादूगरी किया करते थे। ये वो दौर था जब हर तरफ़ दिलीप साहब के ही चर्चे हुआ करते थे, हर कोई दिलीप कुमार बनना चाहता था, मानों कोई सुबह उठता, ख़ुद को आईने में देखता, बालों को संवारता और फिर ख़ुद से पूछता ‘मैं दिलीप कुमार बन सकता हूँ क्या?’ उस ज़माने में जब भी अभिनय की बात होती तो दिलीप साहब की ही मिसाल दी जाती । ये रुतबा था दिलीप कुमार का । लेकिन ये जानकार आपको हैरानी होगी, कि अभिनय की दुनिया में जिस दिलीप कुमार की मिसालें दी जाती थी, जिस दिलीप कुमार ने अपने किरदार और फ़िल्मी अंदाज की बदौलत हिंदुस्तानियों के दिलों पर राज किया, वास्तव में फ़िल्मों में काम करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी ।और न ही उन्होंने कभी ये सोचा था कि वे यूसुफ़ सरवर खान से एक दिन दिल दिलीप कुमार बन जाएंगे ।जी हाँ, आज की वीडियो में हम आपको यही बताने वाले कि दिलीप कुमार जिन्हें फ़िल्मों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वे कैसे फ़िल्मों में आए और यूसुफ़ सरवर खान से दिलीप कुमार कैसे बन गए ।

दिलीप कुमार जिनका वास्तविक नाम यूसुफ़ सरवर खान है । इनके पिता मोहम्मद सरवर खान मुंबई में फलों के बड़े कारोबारी थे, लिहाज़ा शुरूआती दिनों से ही दिलीप कुमार अपने पारिवारिक कारोबार में ही शामिल थे। एक दिन की बात है किसी बात पर दिलीप कुमार की अपने पिता से कहा सुनी हो गई ।और वे ग़ुस्से में पुणे चले गए, वहां जाकर वे ब्रिटिश आर्मी के कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी करने लगे । उन्होंने वहाँ सैंडविच काउंटर खोला था जो अंग्रेजों के बीच काफ़ी लोकप्रिय था ।लेकिन उनका कैंटीन ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सका ।दरअसल हुआ ये कि कैंटीन में एक दिन एक आयोजन में भारत की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करने के चलते दिलीप कुमार को गिरफ़्तार कर लिया गया और इस तरह से कैंटीन का काम बंद हो गया ।इसके बाद वे मुंबई वापिस लौट आएं और अपने पिता के काम में हाथ बटाने लगे ।क़िस्मत बड़ी कुत्ती चीज है, कभी भी पलट सकती है । शाहरूख का ये डायलॉग आपको याद होगा ।ऐसा ही कुछ उस ज़माने में दिलीप कुमार के साथ हुआ । दिलीप कुमार उन दिनों अपने कारोबार को आगे बढ़ा रहे थे । इसी सिलसिले में उन्हें ब्रिटिश आर्मी कैंट में लकड़ी से बनी कॉट सप्लाई का काम पाने के लिए एक दिन दादर जाना था । वे चर्चगेट रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे, तभी उन्हें उनकी पहचाने वाले डॉक्टर मसानी उन्हें स्टेशन पर ही मिल गए । डाक्टर साहब ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे । ‘बॉम्बे टॉकीज’ उस दौर का सबसे कामयाब फ़िल्म प्रोडक्शन था ।डाक्टर साहब ने दिलीप कुमार से कहा- तुम भी साथ चलो, क्या पता तुम्हें वहाँ कोई काम मिल जाए । पहले तो दिलीप साहब ने मना कर दिया लेकिन मूवी स्टुडियो देखने की चाहत ने उन्हें मन ही मन मना लिया और वे तैयार हो गए । उन्हें क्या मालूम था कि उनकी क़िस्मत के सितारे यहाँ से बदलने वाले हैं । दिलीप साहब अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टैंस एंड द शैडो’ में लिखते हैं, जब वे लोग उनके केबिन में पहुँचे तब देविका रानी काफ़ी संजीदा महिला लगीं । डाक्टर मसानी ने दिलीप कुमार का परिचय कराते हुए देविका रानी से उनके लिए काम की बात की । देविका रानी ने दिलीप साहब से पूछा- क्या आपको उर्दू आती है? दिलीप साहब अभी कुछ जवाब दे ही पाते कि डाक्टर मसानी देविका रानी से उनके और उनके परिवार और कारोबार के बारे में बताने लगे । फिर देविका जी ने पूछा- क्या तुम एक्टर बनोगे? ये पूछते हुए देविका जी ने दिलीप कुमार को 1250 रूपये महीने की नौकरी ऑफ़र कर दी । डाक्टर मसानी ने इशारे करते हुए दिलीप कुमार को इसे स्वीकार लेने को कहा। उन्होंने स्वीकारा भी और शुक्रिया अदा करते हुए  दिलीप साहब ने कहा कि उनके पास न तो काम करने का अनुभव है और ना ही सिनेमा की समझ । तभी देविका जी ने उनसे पूछा कि तुम फलों के कारोबार के बारे में कितना जानते हो? दिलीप साहब का जवाब था, “जी, मैं सीख रहा हूँ अभी”, इस पर देविका रानी ने कहा जब तुम फलों के कारोबार और फलों की खेती के बारे में सीख रहे हो तो फ़िल्म मेकिंग और अभिनय भी सीख लोगे । इसके साथ उन्होंने ये भी कहा, “मुझे एक युवा, गुड लुकिंग और पढ़े लिखे एक्टर की ज़रूरत है । मुझे तुममें एक अच्छा एक्टर बनने की योग्यता दिख रही है।” बस उसी दिन से दिलीप साहब देविका जी के यहाँ काम करने लगे । और एक दिन कि बात है, जब दिलीप साहब स्टुडियो पहुँचे तो उन्हें बताया गया कि देविका जी ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया है । इस मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए दिलीप कुमार अपनी आत्मकथा में लिखते हैं।  देविका जी ने अपनी शानदार अंग्रेजी में उनसे कहा- “यूसुफ़ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं । ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो । ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी । मेरे ख़याल से दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है । जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया । तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?"

दिलीप साहब आगे लिखते हैं, सबसे पहले तो यह सुनकर वे हक्का-बक्का रह गए, उनकी बोलती बंद हो गई. मानों कुछ देर के लिए जैसे उन्हें साँप ही सूंघ गया हो । क्योंकि एक नया नाम और नई पहचान के लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं थे । खैर, ये सब सुनने के बाद दिलीप साहब ने पूछा- मैडम ये नाम तो बहुत अच्छा है, लेकिन क्या ऐसा करना वाक़ई ज़रूरी है? दिलीप कुमार के चेहरे का भाव देखकर देविका जी पहले तो मुस्कुराई और फिर जवाब दिया- ऐसा करना बुद्धिमानी भरा होगा, काफ़ी सोच विचारकर इस नतीजे पर पहुंची हूं कि तुम्हारा स्क्रीन नेम होना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि देविका रानी एक दूरदर्शी महिला थीं ।उन्होंने नाम बदलने के पीछे के तर्क को भी समझाया।उन्होंने कहा कि इस तरह का स्क्रीन नेम अच्छा होगा और इसमें एक सेक्युलर अपील भी होगी। हालाँकि, ये आज़ादी से पहले का वो दौर था कि उस वक़्त हिंदू और मुस्लिम को लेकर समाज में बहुत कटुता की स्थिति नहीं थी । लेकिन कुछ ही सालों बाद देश का बँटवारा हो गया और सांप्रदायिकता की आग में बहुतों ने अपनी ज़िंदगी को झोंक दिया। हालांकि, दिलीप कुमार ऐसे पहले अभिनेता नहीं थे जिनका स्क्रीन नेम रखा गया. इनसे पहले ही देविका जी 1936 में फ़िल्म अछूत कन्या में कुमुदलाल गांगुली को अशोक कुमार के तौर पर स्थापित कर चुकी थीं । और 1943 में अशोक कुमार की फ़िल्म क़िस्मत सुपर हिट हुई थी । जिसके बाद अशोक कुमार रातों-रात सुपरस्टार बन गए थे । यही वे अभिनेता थे जो भारतीय सिनेमा में पहले कुमार बने थे । खैर, देविका जी ने नाम बदलने के पीछे जो तर्क दिया था, उस पर तो दिलीप साहब सहमत हो गए थे। लेकिन उन्होंने देविका जी से थोड़ा सोचने का समय माँगा ।देविका जी ने भी कहा कि ठीक है, विचार करलो, लेकिन जल्दी बताना । अब दिलीप साहब बड़ी ही असमंजस की स्थिति में पड़ गए थे । वे स्टूडियो में काम तो कर रहे थे, लेकिन उनका दिमाग़ उसी दुविधा फँसा हुआ था । ऐसे में शशिधर मुखर्जी की नज़र उन पर पड़ी, वे काफ़ी चिंतित दिखे तो उन्होंने पूछ लिया- अरे भई, किस विचार में डूबे हो? दिलीप साहब ने शशिधर मुखर्जी को केबिन की सारी बातें बताईं । सब कुछ सुनने के बाद शशिधर मुखर्जी ने अपनी मुंडी हिलाई और एक मिनट के लिए मौन होकर सोचने लगे । उसके बाद जो कुछ भी उन्होंने कहा, उसका ज़िक्र दिलीप साहब ने अपनी आत्मकथा में कुछ इस तरह से किया है । उन्होंने कहा- "मेरे ख़्याल से देविका ठीक कह रही हैं। उन्होंने जो नाम सुझाया है उसे स्वीकार करना तुम्हारे फ़ायदे की बात है । यह बहुत ही अच्छा नाम है । ये बात दूसरी है कि मैं तुम्हें युसूफ़ के नाम ही जानता रहूंगा।" ये सलाह सुनकर यूसुफ़ ख़ान ने दिलीप कुमार के स्क्रीन नेम को स्वीकार कर लिया और फिर 'ज्वार भाटा' की शूटिंग शुरू हो गई।

साल 1944 में इस फ़िल्म के माध्यम से भारतीय हिंदी सिनेमा के इतिहास में दिलीप कुमार के रूप में एक सुपर स्टार का जन्म हो चुका था ।उनकी पहली फ़िल्म पिट गई । उस समय की एक प्रमुख पत्रिका में फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिए लिखा गया- “फ़िल्म में लगता है किसी मरियल और भूखे दिखने वाले शख़्स को हीरो बना दिया गया है।” हालाँकि, बहुत से ऐसे लोग जो फ़िल्म इंडस्ट्री को बहुत ही क़रीब से देखते और जानते थे । उन्होंने दिलीप कुमार की डायलॉग डिलवरी और अभिनय के अंदाज को देखकर ये भाँप लिया था कि ये कलाकार लंबे रेस का घोड़ा है । कुछ तो ऐसी बात है जो इस कलाकार को बाक़ी कलाकारों से अलग करती है । ज्वारा भाटा फ़िल्म तो नहीं चली लेकिन दिलीप कुमार ने उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा । देवदास, मुग़ल-ए-आजम, सौदागर, नया दौर, कर्मा, क्रांति, गंगा जमुना, राम और श्याम, शक्ति, बैराग, जोगन, ऐसी कई फ़िल्मों में दिलीप साहब ने अपने दमदार डायलॉग डिलीवरी और अभिनय की बदौलत लोगों के दिलो को जीत लिया। और कई दशकों तक हिंदी सिनेमा पर राज किया । इनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई कि दिलीप साहब की एक झलक पाने के लिए लोग बेचैन रहते थे । लेकिन कहने है न कि वक़्त से साथ-साथ हालात भी बदलते हैं । और समय का चक्र हमेशा आगे तरफ़ बढ़ता रहता है । समय के साथ-साथ दिलीप साहब की सेहत ने उनका साथ देना छोड़ा दिया । बढ़ती उम्र की तक़ाज़े ने उन्हें बूढ़ा बना दिया। और वे कई बीमारियों की चपेट में आ गए । दिलीप साहब अब बीमार रहने लगे । उन्होंने फ़िल्म अभिनेत्री शायरा बानों से शादी तो की लेकिन उन्हें कोई औलाद नहीं हुआ। हालाँकि बॉलिवुड के बादशाह शाहरुख़ खान दिलीप कुमार के बहुत बड़े फ़ैन है, और जब तक दिलीप कुमार ज़िंदा थे, वे शाहरुख़ खान को अपने बेटे की तरह प्यार करते थे । इसलिए शाहरूख खान भी हमेशा उनकी सेहत का ख़्याल रखा करते थे । लेकिन 7 जुलाई 2021 को 98 साल की उम्र में सुबह साढ़े सात बजे मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में दिलीप साहब का निधन हो गया । और इस तरह से हिंदी सिनेमा के साथ-साथ हिंदुस्तानियों के दिलों पर राज करने वाले एक महान कलाकार का द एंड हो गया है । तो ये इस सदी के ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर दिलीप कुमार साहब की कहानी थी । कैसी लगी आपको ये स्टोरी कमेंट करके ज़रूर बताएँ । 
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