मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पूर्व CJI चंद्रचूड़ के फैसलों को बताया गलत, जानिए क्यों?
यूपी के संबल और राजस्थान के अजमेर शरीफ से जुड़े विवादों ने राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। यह बहस तब शुरू हुई, जब विभिन्न धार्मिक स्थलों की संरचना और इतिहास पर सवाल उठाए गए। खासकर अजमेर शरीफ दरगाह को एक हिंदू मंदिर बताने वाली याचिका ने अदालत तक का रास्ता तय कर लिया।
भारत में धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद हमेशा से संवेदनशील मुद्दा रहा है। हाल ही में संबल और अजमेर शरीफ जैसे स्थानों पर निचली अदालतों के फैसलों ने इस मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। खासकर पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के फैसले विवाद का केंद्र बन गए हैं। उनके द्वारा दिए गए कुछ अहम फैसलों ने देशभर में धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण और याचिकाओं का रास्ता खोल दिया है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) और समाजवादी पार्टी (SP) के नेताओं ने इस पर नाराजगी जाहिर की है।
ज्ञानवापी सर्वेक्षण: चंद्रचूड़ के फैसले की शुरुआत
यह विवाद तब शुरू हुआ जब 2023 में चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को वैज्ञानिक सर्वेक्षण की अनुमति दी। AIMPLB और SP नेताओं ने इस फैसले को "प्लेस ऑफ वर्शिप ऐक्ट, 1991" के खिलाफ बताते हुए इसे गलत ठहराया। यह कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बदलने की अनुमति नहीं है। बाबरी मस्जिद मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी कानून का हवाला दिया था।
AIMPLB ने कहा कि ज्ञानवापी मामले में नरमी दिखाकर अदालत ने एक खतरनाक मिसाल पेश की। उनके अनुसार, यह फैसला अन्य धार्मिक स्थलों पर सर्वेक्षण और याचिकाओं को बढ़ावा देगा।
मथुरा, लखनऊ और अन्य विवादित स्थल
ज्ञानवापी मामले के बाद मथुरा के शाही ईदगाह, लखनऊ की टीले वाली मस्जिद, और मध्य प्रदेश की भोजशाला सहित कई स्थलों पर सर्वेक्षण की मांग उठने लगी। संबल की जामा मस्जिद और अजमेर शरीफ के संबंध में भी अदालतों में याचिकाएं दायर की गई हैं। इसने AIMPLB और विपक्षी दलों को और आक्रामक कर दिया है। AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, "1991 का कानून स्पष्ट है कि पूजा स्थलों की स्थिति नहीं बदली जा सकती। यह सर्वेक्षण सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के उद्देश्य से किए जा रहे हैं।" कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने भी इसे "सांप्रदायिक राजनीति" का हिस्सा बताया।
हिंदू पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील विष्णु शंकर जैन ने "प्लेस ऑफ वर्शिप ऐक्ट, 1991" पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह कानून पुरातात्विक रूप से संरक्षित स्थलों पर लागू नहीं होता। उन्होंने 1950 के प्राचीन स्मारक अधिनियम का हवाला देते हुए कहा कि ASI को ऐसे स्थलों की धार्मिक प्रकृति निर्धारित करने का अधिकार है। दूसरी ओर, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करार दिया। बोर्ड का कहना है कि यह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं है, बल्कि इससे समाज में विभाजन और बढ़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा था कि 1991 का अधिनियम पूजा स्थलों की स्थिति बदलने से रोकता है, लेकिन उनकी धार्मिक प्रकृति का पता लगाने पर कोई रोक नहीं लगाता। उनके इस बयान ने विवाद को और गहरा दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी दिसंबर 2023 में मथुरा के शाही ईदगाह परिसर में सर्वे की अनुमति देकर इस मुद्दे को और गर्मा दिया। मध्य प्रदेश के भोजशाला में भी विवाद बढ़ा, जहां हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के दावे हैं।
RSS प्रमुख मोहन भागवत ने 2022 में कहा था, "हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने की आवश्यकता नहीं है।" लेकिन उनके इस बयान के बावजूद कई संगठनों ने मस्जिदों के अंदर शिवलिंग खोजने के लिए याचिकाएं दायर की हैं। इस मुद्दे पर जनता की राय भी बंटी हुई है। एक ओर, कुछ लोग इसे ऐतिहासिक स्थलों की सच्चाई जानने का प्रयास मानते हैं। वहीं दूसरी ओर, कई लोग इसे राजनीतिक खेल और समाज को बांटने की साजिश मानते हैं। इस विवाद ने भारतीय न्यायपालिका और संविधान की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं। सुप्रीम कोर्ट के आने वाले फैसले तय करेंगे कि देश में धार्मिक स्थलों को लेकर भविष्य में क्या रुख अपनाया जाएगा। फिलहाल, अदालत के हर फैसले पर देश की नजरें टिकी हुई हैं।
चंद्रचूड़ के फैसले से शुरू हुआ यह विवाद अब देशव्यापी बहस बन गया है। यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं है, बल्कि समाजिक और धार्मिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है। अब देखना यह होगा कि न्यायालय इन विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने में क्या भूमिका निभाता है।