आंबेडकर ने मुस्लिम पर्सनल लॉ को सरकारी दखल से बाहर रखने का विरोध क्यों किया?
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में मुस्लिम पर्सनल लॉ पर सरकारी हस्तक्षेप का समर्थन करते हुए इसे सुधारने की बात कही। उन्होंने तर्क दिया कि धार्मिक कानूनों को संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए ताकि महिलाओं और समाज के कमजोर वर्गों के अधिकार सुरक्षित रहें। आंबेडकर का मानना था कि समान नागरिक संहिता भारत को एक प्रगतिशील और न्यायपूर्ण राष्ट्र बनाने में मदद करेगी।
भारत के संविधान निर्माण के दौरान, देश के सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर तीखी बहसें हुईं। इनमें से एक बड़ा मुद्दा था मुस्लिम पर्सनल लॉ और उस पर सरकारी हस्तक्षेप की संभावना। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, जो संविधान के निर्माता और समाज सुधारक थे, इस मुद्दे पर एक अलग लेकिन स्पष्ट दृष्टिकोण रखते थे। उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ को सरकारी दखल से पूरी तरह बाहर रखने के विचार का विरोध किया था। उनके इस रुख के पीछे सामाजिक सुधार, समानता और एक प्रगतिशील राष्ट्र की परिकल्पना थी।
क्या है मुस्लिम पर्सनल लॉ?
मुस्लिम पर्सनल लॉ इस्लामिक धार्मिक सिद्धांतों और शरीयत पर आधारित कानूनों का संग्रह है। यह कानून मुसलमानों के विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, और संपत्ति वितरण जैसे मामलों को नियंत्रित करता है। भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट के तहत लागू है।
हालांकि संविधान सभा में चर्चा के दौरान, कई नेताओं ने मांग की थी कि पर्सनल लॉ को पूरी तरह धार्मिक समुदायों के अधिकार क्षेत्र में रखा जाए। लेकिन आंबेडकर ने इस विचार का विरोध करते हुए कहा कि एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का होना आवश्यक है। उनका मानना था कि पर्सनल लॉ धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं और समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों का हनन करता है।
आंबेडकर ने तर्क दिया कि एक लोकतांत्रिक समाज में सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलने चाहिए, चाहे उनकी जाति, धर्म, या लिंग कुछ भी हो। उनके अनुसार, पर्सनल लॉ का मौजूदा स्वरूप महिलाओं को तलाक, संपत्ति और अन्य अधिकारों में पुरुषों के मुकाबले कमजोर स्थिति में रखता है। उन्होंने कहा कि धार्मिक कानूनों को अगर समय के साथ बदला नहीं गया, तो समाज में प्रगति बाधित होगी। आंबेडकर का यह भी मानना था कि धार्मिक पर्सनल लॉ सरकार के संविधानिक दायरे से बाहर नहीं हो सकते। उन्होंने कहा था: "अगर पर्सनल लॉ संविधान के खिलाफ हैं, तो उन्हें बदला जाना चाहिए।"
आंबेडकर ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में विशेष रूप से तीन समस्याएं देखीं थी। पहली. तलाक और बहुविवाह, दरअसल उनका मानना था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में पुरुषों को तलाक और बहुविवाह के मामलों में अनुचित लाभ मिलता है, जो महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन है। दूसरी संपत्ति का अधिकार, उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के संपत्ति अधिकारों में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। तीसरी कानून का धार्मिक स्वरूप, उनका मानना था कि धार्मिक कानूनों का सार्वजनिक जीवन और राज्य की नीतियों में हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए।
समान नागरिक संहिता का विचार
आंबेडकर ने संविधान सभा में जोर देकर कहा कि भारत जैसे विविधता भरे देश को एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। हालांकि, उन्होंने यह भी समझा कि इस मुद्दे पर तत्काल कोई निर्णय लेना संभव नहीं होगा, इसलिए इसे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों (Directive Principles) में शामिल किया गया।
मुस्लिम नेताओं ने पर्सनल लॉ में किसी भी बदलाव का यह कहते हुए विरोध किया कि यह उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है। आंबेडकर ने इसका जवाब देते हुए कहा "संविधान का उद्देश्य है समाज में समानता और न्याय स्थापित करना। अगर कोई कानून असमानता और अन्याय को बढ़ावा देता है, तो उसे बदलना आवश्यक है।" आज, जब समान नागरिक संहिता को लेकर बहस जारी है, आंबेडकर की सोच और दूरदृष्टि और भी प्रासंगिक हो जाती है। उनका मानना था कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में कानून धर्म के बजाय संविधान और नागरिकों के अधिकारों पर आधारित होना चाहिए।
आंबेडकर का पर्सनल लॉ पर रुख सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं था, बल्कि वे सभी धार्मिक पर्सनल लॉ में सुधार की बात करते थे। उनकी सोच का मूल आधार एक प्रगतिशील, समान और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना था। उनका कहना था कि भारत को अगर एक आधुनिक राष्ट्र बनना है, तो कानूनों को धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील होना होगा। आंबेडकर की यह दूरदृष्टि आज भी भारत के समाज सुधारकों और नीति निर्माताओं के लिए एक मार्गदर्शक है। उनके विचार न केवल सामाजिक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि कानून और संविधान को सभी नागरिकों के हित में कैसे काम करना चाहिए।