240 सीटों के बावजूद गठबंधन में क्यों लड़खड़ा रही बीजेपी, क्या PM Modi को है अनुभव की कमी ?
देश की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी के नाम को कोई शायद ही भूल सकता है, उन्होंने अपनी सरकार में अहम फ़ैसले लिए बावजूद इसके जब उनकी सरकार गठबंधन की थी और भाजपा 182 सीट तक सीमित थी लेकिन अब सवाल इस बात का खड़ा हो रहा है कि वर्तमान में 240 सीट पाकर भी भाजपा के लिए गठबंधन की राजनीति अचानक मुश्किल में क्यों पड़ती जा रही है ?
देश की राजनीति में नब्बे के दशक में काफ़ी फ़ेडबदल देखने को मिला, एक तरफ़ जहाँ क्षेत्रीय दलों की लगातार मज़बूती बढ़ती जा रही थी तो वही दूसरी तरफ़ केंद्र की राजनीति में भी बड़े उलटफेर हुए। इस दौर में देश में आर्थिक सुधारों के साथ-साथ गठबंधन की राजनीति का भी जन्म हुआ। जब बीजेपी के पुरोधा एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के 10 दसवें प्रधानमंत्री बने लेकिन उनकी सरकार कुछ ही दिन चल पाई क्योंकि अटल बिहारी संसद में बहुमत साबित नहीं कर पाए लेकिन अपने इस्तीफ़े से पहले अटल जी ने सदन में जो भाषण दिया था उसने इस बात को साबित कर दिया था कि अब आने वाले दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी जल्द ही देश का नेतृत्व करेंगे। इसी कड़ी में 19 अक्टूबर 1999 को अटल जी ने भाजपा के नेतृत्व में NDA की सरकार बनाई लेकिन मुश्किल दौर में भी इस सरकार ने पांच वर्ष का कार्यकाल भी सफलतापूर्वक पूरा किया। लेकिन वर्तमान में देखा जाए तो PM मोदी ने नेत्रिव में NDA की सरकार चाल रही है लेकिन इस सरकार को लगभग तीन महीने ही हुए कि इन्हें अब कई फ़ैसले या तो वापिस लेने पड़े या फिर उनमें बदलाव करना पड़ा। ऐसे में अगर वर्तमान NDA की सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली NDA सरकार की तुलना करने से पता चलता है की भाजपा कैसे गठबंधन की राजनीति में कमज़ोर होती जा रही है।
सरकार केंद्र की हो या फिर राज्य की अगर गठबंधन की सरकार चलती है तो सत्ता की कुर्सी पर विराजमान नेताओ को काफ़ी जतन भी करने पड़ते है। कभी तो फ़ैसले वापिस लेने पड़ते है तो कभी आदेश को बदलना पड़ता है। नीतियों को लेकर गठबंधन करके सरकार तो बन जाती है लेकिन अब में उन्ही नीतियों और बातों को लागू करने में नोकझोक की स्थिति भी बन जाती है। इसी बात को 90 के दौर में वाजपेयी ने बख़ूबी समझते हुए केंद्र की राजनीति में कांग्रेस को टक्कर देने के लिए तमाम दलों को साथ लेकर सरकार बनाई जिसमें भाजपा की महज़ 182 सीट थी बावजूद इसके इस सरकार ने अपने कार्यकाल को पूरा किया। इसके बाद साल 2004 कांग्रेस के नेतृत्व में मनमोहन सिंह ने एक दशक तक UPA की सरकार चलाई। फिर कांग्रेस के ख़िलाफ़ एक नाम अंधी की तरह सामने आया जो नाम था नरेंद्र मोदी का। मोदी के तूफ़ान के आगे विपक्षी कांग्रेस पार्टी के सारे चुनावी हत्थकंडे फ़ेल हो गए, बीजेपी 2014 और 2019 में पूर्ण बहुमत पाती है और फिर गठबंधन राजनीति कहीं नेपथ्य में चली जाती है। 2024 में 240 सीटें जीतने के बावजूद, बीजेपी को अब गठबंधन सरकार बनानी पड़ी जिसे चलने में अब पार्टी को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
सहयोगी दलों के सामने क्यों झुकने पर मजबूर हो रही मोदी सरकार
PM मोदी लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री तो बने लेकिन ये डगर मोदी के लिए मुश्किल साबित हो रहा है क्योंकि इस बाद उनकी सरकार सहयोगियों के भरोसे टिकी हुई है जबकि पहले का दो कार्यकाल में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। NDA 3.0 की शुरुआत ही लड़खड़ाहट के साथ हुई इस बार बजट में सरकार ने उस प्रावधान को वापस लिया जिसे 23 जुलाई 2024 से पहले ख़रीदी गई संपात्तियों की बिकी के लिए इंडेक्सेशन लाभ नहीं देने का प्रस्ताव था. चूंकि, वित्त मंत्री अक्सर ही बाजार के फीडबैक पर फैसले बदलते हैं, इसलिए इसे सामान्य माना जा सकता है। बाद में वक़्फ़ ऐक्ट संसोधन बिल पेश किया गया इस बिल में NDA में BJP के दो बड़े सहयोगी दलों का समर्थन हासिल था, लेकिन फिर इसे संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेज दिया गया।ये मोदी के पहले की कार्यकाल के तेवर के बिलकुल उलट था। इसके बाद फिर सरकार में लेटरल एंट्री के जरिए पदों को भरने के लिए UPSC का विज्ञापन आया। इसका विपक्ष ने विरोध शुरू किया ही था कि सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने भी मोर्चा खोल दिया। सिर्फ पांच सांसदों वाली LJP ने सरकार को वह विज्ञापन वापस लेने पर मजबूर कर दिया। इस विषयों को देखते हुए यही लगा रहा है कि गठबंधन सरकार में प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर हमेशा अडिग नहीं रहा जा सकता लेकिन ऐसा लगता है कि NDA 3.0 अभी 'गठबंधन धर्म' के साथ भाजपा तालमेल नहीं बैठा पा रही। इससे यह संदेश जा रहा है कि सरकार कोई फैसला करने से पहले सहयोगी दलों की राय नहीं लेती, अगर सरकार ने सहयोगियों से पहले ही चर्चा कर ली होती तो उसे बार-बार इस तरह यू-टर्न लेने पर शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती।
मोदी क्यों पड़ जा रहे बार-बार शांत
साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी फिर 2004 में मनमोहन सिंह ने जब गठबंधन की सरकार बनाई तो उन्हें इस बात का पता था की कोई भी फ़ैसले में सहयोगी पार्टी को भी शामिल करना होता है लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए ये सब कुछ बिलकुल नया है क्योंकि गुज़ारत के मुख्यमंत्री के तौर पर भी और केंद्र में दो बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जब मोदी बैठे तो उनकी पार्टी यानि भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त था। उन्हें कभी अपने सहयोगियों से कोई भी फ़ैसला लेने से पहले विचार विमर्श नहीं करना पड़ता था। वर्तमान सरकार से शायद यह समझने में गलती हुई कि फैसलों में सहयोगियों को भी शामिल करना पड़ता है। इसी कड़ी में जब मोदी ने जब NDA 3.0 कैबिनेट की घोषणा की तो उसमें अधिकतर पुराने चेहरे बरकरार रखे गए साथ ही सहयोगियों को कुछ प्रमुख मंत्रालय भी मिले लेकिन सरकार के काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव नहीं दिखा।
ग़ौरतलब है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थी कि तीसरी बार भी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा लेकिन इस बार जमीन पर आ चुके बदलाव को स्वीकारना पार्टी के लिए मुश्किल साबित हुआ।