भारत में भाषा विवाद क्यों? जानें क्या है हिंदी के विरोध की असली वजह?
भारत में भाषा को लेकर एक पुराना विवाद फिर से गरमा गया है। तमिलनाडु सरकार ने नई शिक्षा नीति (NEP 2020) को लागू करने से इनकार कर दिया है, जिसके चलते केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा योजना के तहत राज्य को 2,152 करोड़ रुपये की राशि रोक दी है। तमिलनाडु का मानना है कि तीन-भाषा फॉर्मूला हिंदी थोपने की साजिश है, जबकि केंद्र सरकार इसे भाषा का लचीलापन कह रही है।
06 Mar 2025
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Updated:
11 Dec 2025
08:53 AM
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नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 लागू करने को लेकर केंद्र सरकार और तमिलनाडु के बीच विवाद गहरा गया है। केंद्र ने राज्य को समग्र शिक्षा योजना के तहत मिलने वाले 2,152 करोड़ रुपये की राशि जारी करने से इनकार कर दिया, क्योंकि तमिलनाडु सरकार ने NEP 2020 को अपनाने से मना कर दिया है। इस विवाद की जड़ें केवल शिक्षा नीति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह मुद्दा हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के ऐतिहासिक संघर्ष से जुड़ा है।
हिंदी बनाम तमिल, एक सदी पुराना संघर्ष
तमिलनाडु में भाषा को लेकर संघर्ष नया नहीं है। हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने की कोशिशों का तमिलनाडु लगभग 100 वर्षों से विरोध करता आया है। 1937 में, जब अंग्रेजों के शासन के दौरान ही हिंदी को तमिलनाडु के स्कूलों में अनिवार्य करने का प्रस्ताव आया, तो इसका कड़ा विरोध हुआ। 1965 में, जब हिंदी को आधिकारिक भाषा घोषित करने की बात चली, तो तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए। 70 से ज्यादा लोगों की जान गई, जिसके बाद केंद्र सरकार को झुकना पड़ा और हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी सरकारी भाषा के रूप में जारी रखा गया। साल 1986 में, जब राजीव गांधी सरकार ने नई शिक्षा नीति लाई, तब भी तमिलनाडु ने हिंदी को अनिवार्य करने का विरोध किया।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध की असली वजह क्या है?
तमिलनाडु के राजनेताओं का मानना है कि हिंदी को लागू करने से उनकी स्थानीय भाषा और संस्कृति पर असर पड़ेगा। उनका कहना है कि केंद्र सरकार संस्कृत और हिंदी के जरिए "आर्य संस्कृति" को दक्षिण भारत पर थोपने की कोशिश कर रही है। तमिलनाडु में द्रविड़ विचारधारा का प्रभाव है, जो मानती है कि दक्षिण भारत के लोग भारत के मूल निवासी हैं और उत्तर भारतीय बाहरी आक्रमणकारियों के वंशज हैं। मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी केंद्र पर आरोप लगाया कि हिंदी को बढ़ावा देना तमिल संस्कृति और भाषा को दबाने की साजिश है।
तीन भाषा फॉर्मूले का विवाद
भारत सरकार ने तीन-भाषा फॉर्मूला लागू करने का प्रस्ताव दिया था, जिसके तहत स्कूलों में स्थानीय भाषा (तमिल, तेलुगू, कन्नड़, आदि), हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा और अंग्रेजी शामिल होनी चाहिए। लेकिन तमिलनाडु सरकार ने इसे यह कहकर ठुकरा दिया कि यह हिंदी थोपने की साजिश है। राज्य में सिर्फ तमिल और अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है और हिंदी को शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं किया गया है।
इतना ही नहीं तमिलनाडु नवोदय विद्यालयों का भी विरोध करता है? दरअसल भारत के लगभग हर जिले में नवोदय विद्यालय खोले गए हैं, जहां छात्रों को हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जाती है। लेकिन तमिलनाडु सरकार ने नवोदय विद्यालयों को अपने राज्य में अनुमति नहीं दी। इसका कारण यही था कि नवोदय विद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है और तमिलनाडु सरकार नहीं चाहती कि स्कूलों में हिंदी को बढ़ावा दिया जाए।
नई शिक्षा नीति 2020 में क्या बदलाव हैं?
NEP 2020 में कहा गया है कि स्कूलों में तीन भाषाएं पढ़ाई जाएंगी, लेकिन हिंदी अनिवार्य नहीं होगी। राज्य किसी भी दो भारतीय भाषाओं को चुन सकते हैं।
तीसरी भाषा अंग्रेजी हो सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि तमिलनाडु हिंदी के बजाय तमिल, तेलुगू, मलयालम या कोई अन्य भाषा को पढ़ा सकता है। लेकिन तमिलनाडु सरकार को शक है कि केंद्र सरकार तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत थोपेगी।
क्या यह विवाद सिर्फ भाषा का है?
यह विवाद सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें राजनीति भी गहराई से जुड़ी हुई है। तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियां हमेशा हिंदी का विरोध करके उत्तर और दक्षिण भारत के मतभेदों को उभारती रही हैं। हिंदी विरोध उनके राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा बन गया है। DMK (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) और AIADMK (अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम) जैसे दल हिंदी विरोध को तमिल अस्मिता से जोड़कर वोट बैंक की राजनीति करते हैं।
हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है, लेकिन यह पूरे देश की मातृभाषा नहीं है। भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं। हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, लेकिन यह भारत की "राष्ट्रीय भाषा" नहीं है। दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत और कई अन्य राज्यों में हिंदी बोलने वाले बहुत कम लोग हैं। ऐसे में सवाल अब यह उठता है कि हिंदी बनाम तमिल विवाद का हल क्या है? तो आपको बता दें कि इस विवाद का हल संवाद और सहमति से ही निकाला जा सकता है। केंद्र सरकार को राज्यों पर हिंदी थोपने की बजाय भाषा को लेकर अधिक लचीला रुख अपनाना चाहिए। अंग्रेजी को एक "लिंक लैंग्वेज" की तरह इस्तेमाल करना चाहिए, जिससे सभी राज्यों को समान अवसर मिल सकें। स्कूलों में छात्रों को चुनाव की आजादी दी जानी चाहिए कि वे कौन सी भाषा पढ़ना चाहते हैं। भाषा के आधार पर भेदभाव या जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए।
हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा जरूर है, लेकिन इसे पूरे देश की भाषा बनाने के लिए सभी राज्यों की सहमति जरूरी है। जबरदस्ती किसी भाषा को थोपने से संस्कृति और पहचान पर चोट लग सकती है, जिससे राजनीतिक और सामाजिक तनाव बढ़ सकता है। तमिलनाडु जैसे राज्यों में स्थानीय भाषा और संस्कृति को बचाने का प्रयास जारी रहेगा, लेकिन भारत को एकजुट रखने के लिए भाषाई विविधता का सम्मान करना ही एकमात्र समाधान है।
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