आखिर क्यों हिंदुओं की आस्था से खिलवाड़ करना इतना आसान बन गया है?
क्या आपको नहीं लगता कि दुनिया हिंदू आस्था पर हो रहे हमलों को देखकर भी आंखें मूंद लेती है? आखिर कहां जाते हैं तब वो अंतर्राष्ट्रीय संगठन और मानवाधिकार संस्थाएं जो अन्य धर्मों पर होने वाले हमलों पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं? कभी किसी चर्च या मस्जिद पर हल्का सा भी हमला होता है, तो संयुक्त राष्ट्र से लेकर तमाम पश्चिमी देश अपनी राय देने में देर नहीं करते। फिर हिंदुओं पर आखिर ऐसी चुप्पी क्यों?
मेरी हमेशा से बड़ी इच्छा थी तिरुपति बालाजी मंदिर जाने की, लेकिन आज मैं सोचती हूँ कि शायद अच्छा ही हुआ जो मैं वहाँ नहीं गई। दरअसल, हाल ही में जो एक रिपोर्ट सामने आई है, उसके बाद शायद मेरे लिए खुद को यह दिलासा दे देना ही ठीक होगा, लेकिन आज बात मेरी नहीं बल्कि उन तमाम सनातनियों की भी हो रही है जिनकी आस्था के साथ खिलवाड़ किया गया। सोचिए, जिस भगवान के नाम पर लोग लहसून प्याज तक का सेवन तक छोड़ देते हैं, उसी भगवान को लोग जानवरों की चर्बी से बना प्रसाद भोग लगा रहे हैं। जाने-अनजाने में ही सही, पर खिलवाड़ तो हुआ है। लेकिन सवाल अब ये उठता है कि आखिर क्यों हिंदुओं की आस्था से खिलवाड़ करना इतना आसान बन गया है?
अब आप ही सोचिए, तिरुपति बालाजी मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर को चढ़ने वाले प्रसाद में जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल होना कोई मामूली बात तो नहीं है। इस एक वाक्य ने मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को चौंकाया है। रिपोर्ट बताती है कि मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर को चढ़ने वाले प्रसाद में इस्तेमाल होने वाला घी शुद्ध नहीं था। लेकिन कितना शुद्ध नहीं था, चावल में कंकड़ जितनी मिलावट होती तो लोग इसे हजम भी कर लेते। पर यहां तो घी में मछली का तेल, गोमांस और सूअर की चर्बी तक का उपयोग किया गया। पर ऐसे में कुछ तथाकथित लिबरल और वामपंथी लोग इस मामले को हल्का करके पेश करने की कोशिश में लगे हैं। उनका कहना है कि हिंदू खुद मांस खाते हैं, तो उन्हें क्या फर्क पड़ता है? ये लोग बड़ी चालाकी से इस मुद्दे को खानपान के विवाद में बदलने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि ये मामला खान-पान का नहीं, बल्कि आस्था का है। और रही बात खान-पान की. तो आपको याद दिला दूं कि भारत एक विविधताओं से भरा देश है, जहाँ हर समुदाय के अपने रिवाज और अपनी परंपराएँ हैं।
हिंदू धर्म में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही तरह के लोग हैं। कुछ हिंदू नॉनवेज खाने से भले ही परहेज नहीं करते, लेकिन कुछ हिंदू भारत में ऐसे भी हैं जो खाने में प्याज, लहसुन तक का सेवन नहीं करते। पर जब बात आस्था की आती है तो फिर वो शाकाहारी हो या मांसाहारी, सभी एक साथ खड़े हो जाते हैं। हिंदू धर्म में गौमांस का सेवन पूरी तरह वर्जित है। फिर भला कैसे यह कहा जा सकता है कि जो मांसाहारी हैं, उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए? यह विवाद खान-पान का नहीं, बल्कि श्रद्धा का है।
इतिहास गवाह है कि आक्रांताओं ने हिंदू मंदिरों को अपवित्र करने और उन्हें नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ब्रिटिश शासन के दौरान भी हिंदुओं को गोमांस खिलाने की कई कोशिशें की गई थीं। ब्रिटिश हुकूमत ने अपने फायदे के लिए कई बार हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया, चाहे वह दवाओं में सूअर और गाय की चर्बी मिलाना हो या फिर गोमांस वाली कारतूसें सैनिकों को थमाना। उस समय भी, भारतीय हिंदुओं ने ब्रिटिशर्स के खिलाफ सख्त विरोध किया और अपने धर्म के लिए कई कुर्बानियाँ दीं। 1857 के विद्रोह की चिंगारी भी इसी धार्मिक असहिष्णुता से भड़की थी। सोचिए, जिन हिंदुओं ने उस समय अपनी मूलभूत जरूरतों को त्याग दिया, आज उनके लिए धर्म के साथ किया गया यह खिलवाड़ कितना बड़ा होगा। जो हिंदू अपने घर में भगवान का भोग बनाते समय अपना सिर तक नंगा नहीं रखता, उसके लिए इतने बड़े मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर के प्रसाद में जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल बर्दाश्त होना चाहिए?
कौन इन सबके लिए जिम्मेदार है?
अब आप ये सोच रहे होंगे की फिर इस पूरे मामले में गलत कौन है? कौन इन सबके लिए जिम्मेदार है? दरअसल हिंदू धर्म के लोग अक्सर शांतिप्रिय और सहनशील होते हैं। वे किसी विवाद या अपमानजनक घटना के बाद भी आसानी से माफ कर देते हैं और किसी तरह का हिंसक प्रतिरोध नहीं करते। उनकी यही सहनशीलता और शांतिप्रियता कई बार गलत समझ ली जाती है और इसे उनकी कमजोरी के रूप में देखा जाता है। खुद को लिबरल और सेक्युलर कहने वाले लोग अक्सर सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा देने की बात करते हैं, लेकिन जब हिंदू धर्म की बात आती है, तो अक्सर यह देखा जाता है कि इस वर्ग की संवेदनशीलता कहीं खो जाती है। वे अक्सर किसी भी हिंदू विरोधी घटना को “अभिव्यक्ति की आजादी” के नाम पर नजरअंदाज कर देते हैं।लेकिन सच कहूं तो हिंदुओं की शांतिप्रियता और सहनशीलता को उनकी कमजोरी समझना एक बड़ी भूल है।
यह वही धर्म है जिसने हमेशा सहनशीलता, सह-अस्तित्व और शांति का संदेश दिया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके प्रतीकों, मंदिरों, और आस्थाओं का अपमान सहन किया जाएगा। इसलिए हिंदू धर्म के लोगों को अब अपनी आस्था की रक्षा के लिए खुद खड़े होना होगा, और सनातन धर्म रक्षा बोर्ड की उठती मांग को देखकर कहना गलत नहीं होगा कि इसकी शुरूवात भी हो चुकी है। तेलंगाना के डिप्टी सीएम पवन कल्याण ने खुद हिंदुओं को एकजुट होकर सनातन रक्षा के लिए आगे आने की अपील की है। ऐसे में माना जा रहा है कि दक्षिण से एक बार फिर सनातन की लहर उठेगी और हिंदुओं को जागरूक करेगी, ठीक वैसे ही जैसे आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने धर्म की पुनर्स्थापना की थी? आदि शंकराचार्य ने जब धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया, तो वे पूरे भारत की यात्रा पर निकले और अपने तर्कों और शास्त्रार्थ से धर्म की पुनर्स्थापना की। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, जिन्हें आज चार धाम के रूप में जाना जाता है। शायद तिरुपति की इस घटना के बाद एक बार फिर इतिहास खुद को दोहराने वाला है।
खैर आखिरी में मैं इतना ही कहूँगी कि हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। यदि इस लेख में लिखी गई किसी बात से आपकी भावनाओं को ठेस पहुंची है, तो इसके लिए हमें खेद है। कृपया इसे किसी भी व्यक्ति, समुदाय या धर्म के प्रति द्वेष के रूप में न लें। लेख का मकसद केवल विषय पर प्रकाश डालना है, न कि किसी को आहत करना।