‘चुप हो जाइए, एक शब्द भी अब बर्दाश्त नहीं करूंगी...’ Indira Gandhi ने Rafi को ऐसा क्यों कहा था?
इस वीडियो में रफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ी एक छोटी सी दिलचस्प कहानी बताने वाले हैं. जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और आवाज़ के जादूगर रफ़ी साहब के इर्द-गिर्द घूमता है. हम आपको बताएँगे कि अचानक ऐसा क्या हुआ था कि आयरन लेडी इंदिरा गांधी फूट-फूटकर रोने लगी थीं. रफ़ी साहब के किस गाने को सुनने के बाद वे अपनी भावनाओं को क़ाबू नहीं कर पाई थीं. और आख़िर में उन्हें कहना पड़ गया कि ‘अब चुप हो जाइए मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी’.
"तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुन गुनाओगे." दुनिया में कुछ शख़्सियतें ऐसी होती हैं, जिनके बारे में लिखने बैठ जाओ तो आपका कलम घिस जाए, रोशनाई सूख जाए और काग़ज़ ख़त्म हो जाएं, फिर भी आप उनका बखान नहीं कर पाएँगे. ऐसी ही शक्सियतों में महान गायक मोहम्मद रफ़ी साहब का नाम भी शुमार है. रफ़ी साहब का गाया हुआ गाना आज भी हमारे कानों में दस्तक देता है तो हम भी संघ संघ गुनगुनाने को मजबूर हो जाते हैं. रफ़ी साहब के गाने कानों के माध्यम से सीधे हमारे दिल में उतरते हैं, ये ऐसे गायक गुजरे हैं जिनके चाहने वाले हर दौर में हैं, और बहुत से गायकों ने इनके गाय हुए गाने को गाकर अपनी क़िस्मत के तारे चमकाए हैं. वैसे तो मोहम्मद रफ़ी की शख्सिय को पूरी तरह बयां कर पाना लगभग नामुमकिन सा है. इसलिए इस वीडियो में रफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ी एक छोटी सी दिलचस्प कहानी बताने वाले हैं. जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और आवाज़ के जादूगर रफ़ी साहब के इर्द-गिर्द घूमता है.
- अचानक ऐसा क्या हुआ था कि आयरन लेडी इंदिरा गांधी फूट-फूटकर रोने लगी थीं?
- रफ़ी साहब के किस गाने को सुनने के बाद वे अपनी भावनाओं को क़ाबू नहीं कर पाई थीं.
- और आख़िर में उन्हें कहना पड़ गया कि ‘अब चुप हो जाइए मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी’.
बात दरअसल, 60 के दशक की है, जब महान शो मैन राज कपूर साहब ने एक फ़िल्म बनाने की सोची, जिसका नाम था ‘अब दिल्ली दूर नहीं’। इस फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी, जिसमें एक नौनिहाल बच्चा अपने पिता के फाँसी की सज़ा को रुकवाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली की तरफ़ चल पड़ता है. और आपको तो पता ही है पंडित जवाहर लाल नेहरू बच्चों से कितना प्यार करते थे. इसलिए उन्हें बच्चे चाचा नेहरू कहकर पुकारा करते थे. बच्चों के प्रति प्यार को देखकर ही राज कपूर साहब के मन में एक विचार आया कि क्यों न इस फ़िल्म में प्रधानमंत्री के तौर पर कुछ देर के लिए ही सही पंडित जवाहर लाल नेहरू को दिखा दिया जाए. बस इसी विचार को सीने में संजोए राज कपूर साहब ने नेहरू जी से मिलने का मन बना लिया।
उनसे मुलाक़ात की और गुज़ारिश की कि इस फ़िल्म में कुछ मिनट के लिए ही सही, बच्चों की ख़ातिर, प्रधानमंत्री के तौर पर अभिनय करने के लिए नेहरू जी हां कर दें. मज़े की बात ये है कि नेहरू जी मान भी गए. फिर क्या था, कपूर साहब वहाँ से ख़ुशी-खुशी लौटे और फ़िल्म की तैयारी शुरू कर दी. लेकिन बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय से एक पत्र राज कपूर साहब को मिला, जिसमें लिखा था कि अगर किसी देश का प्रधानमंत्री किसी फ़िल्म में अभिनय करता है तो पूरी दुनिया में ग़लत संदेश जाएँगा. और लोगों को ऐसा लगेगा कि अपनी पब्लिसिटी के लिए प्रधानमंत्री ने फ़िल्मों तक को नहीं छोड़ा.
अर्थात, नेहरू जी ने राज कपूर साहब की फ़िल्म में अभिनय करने से मना कर दिया. इस तरह से कपूर साहब के सपने का तो द एंड हो गया, लेकिन असल कहानी यही से शुरू होती है. साल था 1964, जब पंडित जी का देहांत हो गया. पूरे देश में शोक का माहौल था. बड़े, बूढ़े और बच्चे सब मायूस थे. उस ज़माने में बॉलिवुड इंडस्ट्री को कई क्लासिक फ़िल्में देने वाले सावन कुमार टाक पंडित जवाहर लाल नेहरू के डाई हार्ट फ़ैन हुआ करते थे.
पंडित नेहरू के चले जाने से सावन कुमार टाक को भी सदमा लगा था. और फ़िल्म ‘दिल्ली अब दूर नहीं’ की तरह ही इनके मन में भी एक विचार आया। इन्होंने सोचा क्यों न पंडित जी को केंद्र में रखकर एक फ़िल्म बनाई जाए. और संपूर्ण भारत को एक संदेश दिया जाए. फिर क्या था, सभी कलाकारों को इकट्ठा किया गया और फ़िल्म की तैयारी शुरू कर दी गई. फ़िल्म का नाम था ‘नौनिहाल’, फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह से थी, कि एक अनाथ बच्चे को विद्यालय के प्रधानाचार्य गोद ले लेते हैं. और उसे बहलाने के लिए बच्चे को बताया जाता है कि चाचा नेहरू उनके रिश्तेदार हैं.
बच्चा ये बात सुनते ही इतना ज़्यादा उत्तेजित हो जाता है, कि वो अकेले ही चाचा नेहरू से मिलने के लिए घर से निकल पड़ता है. तमाम कठिनाइयों को पार करते हुए जब वह नेहरू जी से मिलने वाला होता है तो उसे पता चलता है, पंडित जी की मृत्यु हो गई है. इस फ़िल्म की ख़ास बात ये थी कि इसमें नेहरू जी पर समर्पित एक गाने का फ़िल्माया गया था. इस गाने की लिरिक्स को लिखने का ज़िम्मा उस ज़माने के मशहूर शायर कैफी आज़मी साहब सौंपा गया. कैफी साहब ने बहुत ही शानादार गीत लिखा, जिसके बोल हैं, मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सूनों… कैफी साहब ने गीत तो लिख दिया लेकिन अब सवाल ये था कि इसे आवाज़ कौन देगा? काफ़ी विचार विमर्श के बाद इस नतीजे पर पहुँचा गया कि अगर इस गीत को कोई आवाज़ दे सकता है, तो वो हैं मोहम्मद रफ़ी साहब।
रफ़ी साहब ने इस गीत को अपनी आवाज़ भी दी। और कुछ ही दिनों नौनिहाल फ़िल्म बनकर तैयार हो गया. और जब ये फ़िल्म पर्दे पर आई तो बहुत बड़ी हिट भी साबित हुई. फ़िल्म की आपार सफलता को देखते हुए इस फ़िल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर ने सोचा कि क्यों न भारत सरकार से ये आग्रह किया जाए कि इस फ़िल्म को देशभर में टैक्स फ़्री कर दें. इसी विचार को लिए नौनिहाल फ़िल्म की पूरी टीम यही सोचती रही कि आख़िर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कैसे मिला जाए। सावन कुमार भी उस वक़्त तक फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई बड़ा नाम नहीं बने थे. इसलिए सावन कुमार ने मदद ली अपने ही फ़िल्म में एक किरदार निभाने वाले हरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय की. वैसे तो चट्टोपाध्याय पेशे से शायर और शौक़िया एक्टर थे. मशहूर कांग्रेस नेता सरोजनी नायडू के छोटे भाई थे. और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हरेंद्र बाबू करीबी भी माने जाते थे.
बस सावन कुमार ने इन्हीं की मदद से इंदीरा गांधी से मुलाक़ात की. और सभी ने मिलकर ये गुज़ारिश की कि मैडम पंडित जी को केंद्र में रखकर ये फ़िल्म बनाई गई है. इसलिए इसे देशभर में टैक्स फ़्री कर दिया जाए. इंदिरा ये सुनने के बाद कुछ देर तक ख़ामोश रही और कुछ सोचती रही, फिर कहा ठीक है इस बारे में विचार करती हूँ. इंदिरा जी के ठंडे जवाब से सावन बाबू को लगा कि मैडम ने उनकी बात को टाल दिया है. वे तपाक से बोल उठे मैडम एक बार तो आप इस फ़िल्म को देख लिजिए. उसके बाद आपके मन में जो आए आप निर्णय लिजिएगा. इस पर इंदिरा जी ने कहा कि हमारे पास तीन घंटे का समय कहा हैं कि मैं फ़िल्म बैठकर देखूं। तभी पास बैठे म्यूज़िक कम्पोज़र मदन मोहन ने कहा- चलिए ठीक है मैडम मैं समझ सकता हूँ कि आपका समय बहुत ही क़ीमती है.
लेकिन एक आग्रह है कि आप कम से कम इस फ़िल्म के एक गीत को ही सुन लिजिए, आप सिर्फ़ पाँच मिनट का ही समय दे दिजिए. मदन मोहन की यह बात सुनकर इंदिरा जी तो पहले मुस्कुराई और फिर तैयार हो गईं. उसके बाद रफ़ी साहब की आवाज़ में गाया हुआ गीत बजाया गया, ‘मेरी आवाज़ सुनों, प्यार का राग सुनों…’ रफ़ी साहब ने अपनी जादूई आवाज़ के माध्यम से इस गीत में इतना दर्द भर दिया था, कि जैसे ही गीत बजना शुरू हुआ तो इंदीरा जी खो सी गईं. उनकी दोनों आँखें बंद थीं. आँखों से आंसूओं की बूँद उनके टेबल पर टपक कर मानों इंदिरा जी के दर्द को बयां कर रही थी.
इंदिरा जी कुछ देर के लिए ये भूल गईं कि वे प्रधानमंत्री हैं, बल्कि रफ़ी साहब की दर्द भरी आवाज़ ने आयरन लेडी के नाम से मशहूर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंदर दबी एक बेटी के दर्द को झकझोर दिया था. इंदिरा जी की आँखों से बहती आंसूओं को रोक पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था. इस गाने के ख़त्म होते-होते इंदिरा जी के चेहरे पर उनके पिता के प्रति भावनाएँ साफ़-साफ दिख रही थी. जब सब कुछ बर्दाश्त से बाहर हो गया, तो उन्होंने अपने चेहरे पर हाथ रखते हुए सभी के सामने कह दिया कि रफ़ी साहब अब चुप हो जाइए, मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी. ये कहते हुए वे उठीं और अपने प्राइवेट केबिन में चली गईं। ये सब कुछ देखकर सावन कुमार और उनकी पूरी टीम हैरान हो गई क्योंकि उन्होंने ये तसौव्वर भी नहीं किया था कि ऐसा कुछ होगा.
कुछ देर बार इंदिरा जी के सेक्रेटरी बाहर आए और उन्होंने कहा आप लोग जाइए, आपका काम हो जाएगा. और अगले ही दिन भारत सरकार फ़िल्म नौनिहाल को पूरे देश भर में टैक्स फ़्री कर दिया. तो ये ताक़त थी रफ़ी साहब की आवाज़ में. जिसने भी उन्हें सुना वे मंत्रमुग्ध हो गए. और आज भी जब भी हमारे कानों में रफ़ी साहब की आवाज़ गुंजती है, तो हम उनकी आवाज़ में खो जाते हैं. और वे भावनाएँ जो हमारे अंदर वर्षों से घुंटती हैं. वे बाहर आकर रफ़ी साहब की आवाज़ के साथ ही सैर पर निकल जाती हैं. ये ताक़त हैं रफ़ी साहब के आवाज़ में. इसलिए इन्हें गायक नहीं बल्कि गायकी की दुनिया का जादूगर कहा जाता है. वैसे आप रफ़ी साहब के बारे में क्या कहेंगे, कमेंट करके ज़रूर बताएँ.