दुनिया में कब-कब उठे EVM पर सवाल, कैसे कुछ देशों ने की बैलेट पेपर पर वापसी?
भारत में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर विवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। यह बहस हाल के वर्षों में तेज हो गई है, खासतौर पर विपक्षी दलों द्वारा ईवीएम की पारदर्शिता और सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए गए हैं। यही नहीं, दुनिया के कई देशों में भी ईवीएम को लेकर विवाद हुआ है, और कुछ ने तो बैलेट पेपर पर वापस लौटने का फैसला तक किया है।
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर विवाद कोई नया मुद्दा नहीं है। भारत में यह बहस हाल के वर्षों में तेज हो गई है, खासतौर पर विपक्षी दलों द्वारा ईवीएम की पारदर्शिता और सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं, लेकिन इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। कोर्ट ने ईवीएम के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए इसे "राजनीतिक हार-जीत का बहाना" करार दिया।
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी ने जहां ईवीएम के विरोध को झटका दिया है, वहीं विपक्षी दल इस मुद्दे को और गर्माने की तैयारी में हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने खुले तौर पर ईवीएम के खिलाफ देशव्यापी अभियान चलाने की बात कही है। इसके साथ ही महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (MVA) ने भी "एंटी-ईवीएम प्रोटेस्ट" शुरू करने की योजना बनाई है। लेकिन क्या आप जानते हैं EVM को लेकर विवाद सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों में भी ईवीएम को लेकर विवाद हुआ है, और कुछ ने तो बैलेट पेपर पर वापस लौटने का फैसला तक किया है।
ईवीएम का उदय और शुरुआती विवाद
ईवीएम का इस्तेमाल पहली बार 1982 में केरल के परावुर विधानसभा उपचुनाव में हुआ था। हालांकि, इसे पूरे देश में लागू होने में करीब दो दशक का समय लगा। इसका उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को तेज, सटीक और पारदर्शी बनाना था। लेकिन जैसे-जैसे इसका इस्तेमाल बढ़ा, वैसे-वैसे इसके खिलाफ विवाद भी बढ़े। ईवीएम के खिलाफ पहला बड़ा विवाद 2009 में आया, जब कई राजनीतिक दलों ने इसके सॉफ्टवेयर और प्रोग्रामिंग पर सवाल उठाए। उनका दावा था कि ईवीएम हैकिंग के लिए संवेदनशील हैं और इनका दुरुपयोग किया जा सकता है।
भारत में ईवीएम को लेकर सबसे बड़ा विवाद 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद हुआ। कई विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि ईवीएम में गड़बड़ी कर सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाया गया। 2019 के चुनाव के बाद 21 विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें VVPAT की संख्या बढ़ाने की मांग की गई। हालांकि, कोर्ट ने इस मांग को खारिज कर दिया।
दुनिया में ईवीएम पर उठे सवाल
जर्मनी: 2009 में जर्मनी की संवैधानिक अदालत ने ईवीएम के इस्तेमाल को गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया। अदालत का कहना था कि ईवीएम पारदर्शी नहीं हैं और मतदाता यह नहीं देख सकता कि उसका वोट सही तरीके से दर्ज हुआ या नहीं। इसके बाद जर्मनी ने बैलेट पेपर पर वापसी कर ली।
नीदरलैंड: नीदरलैंड ने 2006 में ईवीएम के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। जांच में पता चला कि ईवीएम में गड़बड़ी की संभावना थी और ये हैकिंग के लिए असुरक्षित थे। इसके बाद उन्होंने बैलेट पेपर का इस्तेमाल फिर से शुरू कर दिया।
अमेरिका: अमेरिका में भी ईवीएम को लेकर विवाद होते रहे हैं। कई राज्यों में ईवीएम के साथ प्रिंटेड वोटर वेरिफिकेशन पेपर (VVPAT) का इस्तेमाल शुरू किया गया, ताकि पारदर्शिता बढ़ाई जा सके।
फिलिपींस: फिलिपींस में 2010 में ईवीएम का इस्तेमाल किया गया, लेकिन चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी को लेकर विरोध प्रदर्शन हुए।
बैलेट पेपर की वापसी की मांग
भारत में कई राजनीतिक दलों और संगठनों ने बैलेट पेपर की वापसी की मांग की है। उनका तर्क है कि बैलेट पेपर की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और विश्वसनीय है। बैलेट पेपर में मतदाता अपने वोट को देख सकता है और गिनती के दौरान भी सभी पार्टियों के प्रतिनिधि परिणाम की जांच कर सकते हैं।
महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (MVA), जिसमें शिवसेना (UBT), कांग्रेस और एनसीपी शामिल हैं, ने हाल ही में ईवीएम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू करने का ऐलान किया है। उनका कहना है कि ईवीएम में पारदर्शिता की कमी है और इनका इस्तेमाल बंद होना चाहिए। MVA के नेताओं का दावा है कि ईवीएम ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के विश्वास को कमजोर किया है। उन्होंने चुनाव आयोग से मांग की है कि आगामी चुनाव बैलेट पेपर के जरिए कराए जाएं।
बैलेट पेपर बनाम ईवीएम, कौन बेहतर?
बैलेट पेपर के पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि यह पारंपरिक, सुरक्षित और पारदर्शी है। हालांकि, इसका इस्तेमाल समय और धन की दृष्टि से महंगा है। वहीं, ईवीएम के पक्ष में तर्क है कि यह तेज, सटीक और पर्यावरण के अनुकूल है। लेकिन इसके खिलाफ सबसे बड़ी दलील यह है कि इसकी प्रणाली मतदाता के लिए पारदर्शी नहीं है।
भारत में बैलेट पेपर पर वापसी करना एक कठिन प्रक्रिया होगी। देश में हर चुनाव के दौरान करोड़ों वोट डाले जाते हैं, और बैलेट पेपर का इस्तेमाल करना समय और संसाधनों की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होगा। हालांकि, यदि जनता और विपक्ष का दबाव बढ़ता है, तो चुनाव आयोग इस पर विचार कर सकता है।