न्याय की देवी की आंखों से हटी पट्टी, जानें क्या नई मूर्ति के साथ बदल गई न्याय की परिभाषा?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में न्याय की देवी की मूर्ति में बदलाव किया है, जिसमें आंखों से पट्टी हटा दी गई है और हाथ में संविधान की किताब दी गई है। यह बदलाव चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के निर्देशानुसार हुआ, जो दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका अब सजा के साथ-साथ संवैधानिक मूल्यों और मानवाधिकारों पर भी जोर देती है।

सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में न्याय की देवी की नई मूर्ति स्थापित की गई है, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। इस मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा दी गई है, जो यह दर्शाता है कि अब कानून अंधा नहीं है। साथ ही, मूर्ति के एक हाथ में तलवार की जगह संविधान की किताब दी गई है, जो कानून की शक्ति और संविधान की महत्ता का प्रतीक है।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के निर्देशानुसार यह बदलाव किए गए, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि कानून अब लोगों को केवल सजा देने पर केंद्रित नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्य और मानव अधिकारों का संरक्षण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
क्यों हटाई गई पट्टी?
पहले की मूर्ति में आंखों पर पट्टी बंधी होती थी, जो यह दर्शाती थी कि कानून सबके लिए एक जैसा है और किसी भी पूर्वाग्रह के बिना न्याय करता है। हालांकि, समय के साथ इस प्रतीक की प्रासंगिकता कम हो गई। अब न्यायालय यह मानता है कि कानून को लोगों के दर्द और तकलीफों को देखते हुए निष्पक्षता से निर्णय लेना चाहिए। इसीलिए, पट्टी हटाकर यह संदेश दिया गया है कि न्याय के समय आंखें खुली होनी चाहिए, ताकि सही और गलत का अंतर स्पष्ट हो सके।
पुरानी मूर्ति और उसका इतिहास
न्याय की देवी को हम प्राचीन सभ्यताओं में "Lady Justice" के नाम से जानते हैं। यह मूर्ति इंसानी सभ्यताओं में न्याय और सच्चाई का प्रतीक मानी जाती है। इस मूर्ति की जड़ें प्राचीन ग्रीक, रोमन और मिस्र की सभ्यताओं से जुड़ी हैं। यूनानी संस्कृति में देवी थीमिस और डाइके को न्याय की देवी के रूप में पूजा जाता था। थीमिस को सही और गलत के बीच संतुलन की देवी माना जाता था, जो न्याय और कानून का पालन करती थीं।
आंखों पर पट्टी: आंखों पर पट्टी न्याय के अंधेपन का प्रतीक है, जो यह दर्शाती है कि न्याय किसी भी प्रकार के पक्षपात से अछूता होना चाहिए।
तलवार: तलवार शक्ति और अधिकार का प्रतीक है। यह दिखाती है कि न्याय निष्पक्षता और कानून के आधार पर दिया जाता है, जिसमें निष्पक्षता के साथ कठोरता भी हो सकती है।
तराजू: न्याय की देवी के हाथ में तराजू न्याय की तौलती हुई प्रवृत्ति को दर्शाता है, जो यह संकेत करता है कि सभी सबूतों को निष्पक्ष रूप से तौलना चाहिए। तराजू न्याय में संतुलन का प्रतीक है, जो इस नई मूर्ति में भी बरकरार रखा गया है।
रोमन काल में, "जस्टिटिया" नामक देवी को न्याय का प्रतीक माना गया। उन्हें पहली बार रोमन सम्राट ऑगस्टस के शासनकाल में प्रस्तुत किया गया। यह परंपरा मध्ययुगीन यूरोप में फैल गई और आधुनिक न्याय प्रणालियों का भी हिस्सा बनी।
संविधान की किताब और तलवार का बदलाव
पहले की मूर्ति में देवी के हाथ में तलवार हुआ करती थी, जो न्याय की कठोरता और सजा देने की शक्ति का प्रतीक थी। अब इसे बदलकर संविधान की किताब रखी गई है, जो यह बताता है कि कानून का आधार केवल सजा देना नहीं, बल्कि संविधान के तहत मानवाधिकारों और न्याय का पालन करना है। यह बदलाव न्यायालय की नई सोच को दर्शाता है, जहां न्याय केवल दंडात्मक नहीं बल्कि संवेदनशील और मानवतावादी होना चाहिए।
क्या संदेश देती है नई मूर्ति?
इस नई मूर्ति का सबसे बड़ा संदेश यही है कि न्याय अब आँख बंद करके नहीं किया जा सकता। वर्तमान समय में कानून का उद्देश्य सिर्फ दोषियों को सजा देना नहीं, बल्कि लोगों के अधिकारों की रक्षा करना भी है। संविधान की किताब और आंखों से पट्टी हटाने का यह प्रतीकात्मक बदलाव भारतीय न्यायपालिका की बदलती सोच को दर्शाता है।
यह मूर्ति हमें याद दिलाती है कि न्याय केवल कानून की धाराओं के अनुसार ही नहीं होना चाहिए, बल्कि यह मानवीय मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों पर आधारित होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह पहल करके न्यायपालिका की सोच में आए परिवर्तन को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। अब कानून को सिर्फ कानूनी धाराओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि समाज की वास्तविकताओं और संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए काम करना चाहिए।
इस मूर्ति के जरिए कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब न्याय की देवी अंधी नहीं है। कानून को न सिर्फ दोषियों को सजा देने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, बल्कि समाज के पीड़ित वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित करने का भी काम करेगा।