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इमरजेंसी का कहर, सेंसर का जहर: तानाशाह के पैरों तले रौंदा देश, कांग्रेस ने घोंटा था संविधान का गला

Emergency का कहर और सेंसर का जहर ऐसा था कि इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र का Switch Off कर दिया गया।
इमरजेंसी का कहर, सेंसर का जहर: तानाशाह के पैरों तले रौंदा देश, कांग्रेस ने  घोंटा था संविधान का गला
आज बात उस काली रात की होगी। जब लोकतंत्र का स्विचऑफ कर दिया गया। वो रात थी इमरजेंसी। जिसने जिंदगियों को थाम दिया। न्यापालिकाओं को बेड़ियों में बांध दिया। क्योंकि उस वक्त इंडिया का मतलब था इंदिरा।

'भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।'



26 जून 1975 इंदिया गांधी ने देश के नाम रेडियों पर ये संदेश पढ़ा। और आजाद भारत के इतिहास में आपातकाल लागू हो गया। लोकतंत्र स्वीच ऑफ कर दिया गया। चंद शब्दों को कहकर जनता की बुनियादी संवैधानिक अधिकार भी उनके हाथ से छीन लिए गए। संदेश साफ था। देश में अब आंतरिक आपातकाल लागू हो चुका है। तो आगे का किस्सा बताएं ।उससे पहले लोकतंत्र को स्वीचऑफ करने की स्क्रिप्ट कहां से कैसे लिखी गई। ये जानना जरूरी है

शुरुआत होती है 26 जून 1975। सुबह के करीब साढे आठ बजे। इंदिरा गांधाी ने अपने असिस्टेंट से पूछा।आज तो रायबरेली चुनाव को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आना है। इसपर वहां बैठे इंदिरा गांधी के छोटे बेटे ने कहा- आप बेफिक्र रहिए फैसला आपके पक्ष में ही आएगा। संजय गांधी ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि इंदिरा के वकील ने संतुष्ट कर दिया था कि सारा इंतजाम हो गया है। क्योंकि उस वक्त इंदिरा का मतलब इंडिया था। 

10 बजे तक सबकुछ ठीक था। जिंदगी पटरी पर दौड़ रही थी। चारों तरफ चहल पहल थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बेसब्री से इंतजार था।इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले का। ठीक 10 बजे जस्टिस जगमोहन सिन्हा अदालत में पहुंचे ।उनके सामने 259 पन्नों का फैसला था। लेकिन उन्होने कहा कि वो सिर्फ निष्कर्ष ही पढ़ेंगे. इसके बाद जज ने फैसला सुनाया ।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 6 साल के लिए मताधिकार से वंचित किया जाता है।


जस्टिस सिन्हा के फैसले ने देश की सियासत में भूचाल ला दिया। इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई। भले की जस्टिस जगमोहन सिन्हा को अंदाजा नहीं था। कि उनकी कलम से इतिहास का कौन सा अध्याय लिखा जा रहा है। लेकिन उस वक्त इलाहाबाद हाईकोर्ट में सरगर्मी बहुत तेज थी। एक सफरदजंग रोड से भी कहीं ज्यादा। 

इधर राजनारायण और उनके समर्थकों ने भरी दोपहरी में दिवाली मनाना शूरू कर दिया और कहा गया।  उनकी तरफ से कहा गया। "हमने लोकतंत्र पर अपना विश्वास जताया है। मैं कोर्ट के फैसले को सम्मानपूर्वक स्वीकार करता हूं"।

इसी दौरान इंदिरा के प्राइवेट सेक्रेटरी ने संजय गांधी को इसकी सूचना दी।  संजय गांधी सुनते ही तुरंत प्रधानमंत्री आवास पर पहुंचे। इंदिरा ने मदद के लिए अपने बेटे की तरफ देखा। और कहा

अब मैं क्या करूं। क्या मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए तभी घबराए हुए संजय गांधी ने छुटते ही कहा- इस्तीफा ।आखिर आप अभी भी प्रधानमंत्री हैं। और भी कई रास्ते होंगे इस समस्या से निपटने के लिए। इस्तीफा इस समस्या का समाधान नहीं है हमें इस मुश्किल को जड़ से कुचलना है। इसलिए आपको पद पर बने रहना होगा। 

कोर्ट के फैसले से देश में गहमा-गहमी बढ़ गई। एक तरफ इंदिरा के घर से बाहर सुरक्षा बल तैनात हो गया। दूसरी तरफ कांग्रेस ने फैसले के विरोध की रणनीति तय की।कमान संभाली संजय गांधी ने ।प्रधानमंत्री आवास पर बड़ी संख्या में कांग्रेस समर्थन जुटते इंदिरा के पक्ष में नारे लगते। लेकिन दिल्ली से सौ कोस दूर गुजरात में इंदिरा के खिलाफ विरोध की नई हवा तैयार हो रही थी। 12 जून की उस रात सबदरजंग रोड पर कोई सोया नहीं ।सारी रात संजय गांधी आगे की रणनीति बनाते रहे। और तय हुआ की रोज सबदरजंग रोड पर जनसैलाब होगा ।जिसकी लहरों पर इंदिरा का नाम लिखा होगा। रोज संजय गांधी का भाषण होता। लेकिन जोश में आया विपक्ष इंदिरा गांधी का इस्तीफा चाहता था। और संजय गांधी ने ये तय तक दिया था की इस्तीफा किसी हाल में नहीं होगा। बाहर बेशक भनक नहीं थी लेकिन अंदर साफ हो गया। कि इंदिरा गांधी किसी तरह सत्ता में बनी रहेंगी।


बलवीर दत्त की किताब इमरजेंसी का कहर और सेंसर का कहर में बकायदा मेंशन किया गया कि "कांग्रेस नेता और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इंदिरा गांधी को आंतरिक आपातकाल लगाने की सलाह दी थी, इसी दौरान जनता पार्टी सरकार के गठित जांच अयोग से अपने बयान में कहा ।

"25 जून की आधी रात को कुछ अनुत्तरादायी व्यक्तियों ने एक बैठक में फैसला लिया कि अदालतें बंद कर दी जाएं और समाचार पत्रों के बिजली कनेक्शन काट दिए जाएं, आयोग ने इसे बहुत गंभीरता से लिया। लेकिन गनीमत ये रही कि किसी वजह ये फैसला लागू नहीं हुआ" ।नहीं तो ये लोकतंत्र का गला घोंटना था। और एक बात साबित हो गई की उस वक्त  इंदिरा गांधी और बाकी नेता सत्ता के मद में कितने दुस्साहसी और विवेकहीन हो गए थे।  इन सब फैसलों के पीछे सिर्फ और सिर्फ इंदिरा गांधी के दुलारे बेटे संजय गांधी का दिमाग था। " जो इमरजेंसी के दौरान लगातार संविधानेत्तर सत्ता केंद्र बना रहा था। यही वजह है कि संजय गांधी को इमरजेंसी की ज्यादातियों की जांच करने वाले आयोग के अध्यक्ष जस्टिस जेसी शाह ने भारत सरकार का बेटा का नाम दिया"। 

 
इतिहास में आपातकाल एक ऐसे कालखंड की तरह मौजूद है जिसकी कालिख काल की धार से भी धुलकर साफ नहीं हुई है।
 
क्योंकि इंदिरा गांधी ने अपने निजी संकट को राष्ट्रीय संकट बना दिया। और अदालत का फैसला मानने की बजाए संसद न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया को कुचलकर रख दिया। " कहर ऐसा की विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं और करीब डेढ लाख पार्टी कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमा चलाए जेल में डाल दिया गया। इसमें करीब 250 पत्रकार भी शामिल थे। और आम जनता को पुलिस की ज्यादति जुल्म का सामना करना पड़ा। अखबारों के समाचारों पर कठोर सेंसर लगा दिया गया। और ये इमरजेंसी का ब्रह्मास्त्र साबित हुआ। क्योंकि जो काम अंग्रेजों ने नहीं किया वो इंदिरा गांधी ने कर दिखाया। सबसे चौंकाने वाली बात तो ये है कि इमरजेंसी की जानकारी नहीं थी ।सिद्धार्थ शंकर राय ने आतंरिक आपातकाल का सुझाव दिया। जिसे इंदिरा गांधी ने स्वीकार कर लिया " । सबसे हैरानी वाली बात तो है कि कठोर सेंसर की वजह से लोगों को पता ही नहीं चल रहा था कि क्या हो रहा है क्या करें क्या ना करें।

ये भारत के इतिहास में अंधेरे की घड़ी थी। वो सरकार राज नहीं अहंकार राज था। उस वक्त लोगों की नहीं । देश की मौत हुई थी।

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