सऊदी अरब में मस्जिदें तोड़ने का कानून, जानें भारत से कैसे अलग है नियम?
सऊदी अरब में मस्जिदों को विकास के लिए तोड़े जाने का मामला चर्चा में है। यहां मक्का और मदीना के आसपास धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कर बड़े स्तर पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं। इसका उद्देश्य तीर्थयात्रियों की सुविधा बढ़ाना है। वहीं, भारत में उपासना स्थल अधिनियम, 1991 के तहत मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बनाए रखना अनिवार्य है।
सऊदी अरब में डिवेलपमेंट के लिए मस्जिदों और अन्य धार्मिक स्थलों को तोड़ने की खबरें अक्सर चर्चा में रहती हैं। ये खबरें न केवल सऊदी अरब में बल्कि पूरी दुनिया में एक संवेदनशील विषय बन चुकी हैं। सऊदी सरकार का तर्क है कि तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या को समायोजित करने और आधुनिक विकास के लिए यह कदम उठाना जरूरी है। लेकिन क्या आप जानते हैं, भारत में इस तरह का कोई कदम उठाने की अनुमति है? इस लेख में हम सऊदी अरब और भारत के कानूनों की तुलना करेंगे और इन विवादित मामलों की गहराई में जाएंगे।
सऊदी अरब में इस्लाम के सबसे पवित्र स्थल मक्का और मदीना स्थित हैं। यहां हर साल लाखों तीर्थयात्री हज और उमराह करने आते हैं। इन यात्राओं को सुगम बनाने और बढ़ती भीड़ को संभालने के लिए सऊदी सरकार ने मक्का में मस्जिद अल-हरम और मदीना में मस्जिद-ए-नबवी का विस्तार किया। इस विस्तार के लिए आसपास स्थित कई पुरानी मस्जिदों और ऐतिहासिक स्थलों को ध्वस्त कर दिया गया। इनमें कुछ मस्जिदें तो ऐसी थीं, जिनका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व बहुत अधिक था। उदाहरण के तौर पर, मस्जिद अल-हरम के आसपास का इलाका पूरी तरह से पुनर्निर्मित कर दिया गया। इसके पीछे सरकार का तर्क था कि तीर्थयात्रियों को अधिक स्थान उपलब्ध कराया जा सके और आधुनिक सुविधाओं का विस्तार किया जा सके।
हालांकि, यह कदम कई बार विवादों में रहा। कई विशेषज्ञों और धार्मिक नेताओं ने इसे सऊदी सरकार की सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने की नीति बताया। सऊदी अरब में इन मस्जिदों के ध्वस्तीकरण पर कोई विशेष विरोध नहीं हो पाता, क्योंकि वहां की शासकीय प्रणाली में सरकार का अंतिम निर्णय सर्वोपरि माना जाता है।
भारत में मस्जिदों के संरक्षण के कानून
भारत में मस्जिदों और अन्य उपासना स्थलों को लेकर कानून सख्त हैं। भारत का 'उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991' यह सुनिश्चित करता है कि 15 अगस्त 1947 को जिस प्रकार से किसी भी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरूप था, उसे वैसे ही बनाए रखा जाएगा।
इस कानून के तहत किसी भी धार्मिक स्थल का चरित्र बदला नहीं जा सकता। यदि किसी धार्मिक स्थल को ध्वस्त किया जाता है या उसके स्वरूप को बदला जाता है, तो यह भारतीय कानून के खिलाफ होगा। उपासना स्थल अधिनियम धार्मिक स्थलों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। हालांकि, हाल के समय में भारत में धार्मिक स्थलों को लेकर कई विवाद सामने आए हैं। वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि जैसे मामले अदालतों में चल रहे हैं। लेकिन इन विवादों के बीच, उपासना स्थल अधिनियम एक महत्वपूर्ण कानूनी ढाल के रूप में कार्य करता है।
सऊदी और भारत के बीच अंतर
सऊदी अरब और भारत के धार्मिक स्थलों के प्रति दृष्टिकोण में बड़ा अंतर है। सऊदी अरब में शासकों का निर्णय अंतिम होता है, और वहां का प्रशासन धार्मिक स्थलों को डिवेलपमेंट के लिए हटाने का अधिकार रखता है। वहीं, भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत, धार्मिक स्थलों को कानूनी और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाती है। यहां सरकार को धार्मिक स्थलों को हटाने या बदलने के लिए जनता और न्यायालय की सहमति लेनी पड़ती है।
सऊदी अरब में विकास के लिए मस्जिदों और विरासत स्थलों को हटाने की प्रक्रिया ने कई सवाल खड़े किए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इन स्थलों को नष्ट करने से इस्लामी संस्कृति और इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा खो रहा है। सऊदी अरब ने 2030 विजन प्रोजेक्ट के तहत अपने देश को एक आधुनिक और विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखा है। इस प्रोजेक्ट के तहत मक्का और मदीना के आसपास बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य किया जा रहा है। हालांकि, इस प्रक्रिया में कई ऐतिहासिक स्थलों को नुकसान पहुंचा है।
क्या भारत में ऐसा संभव है?
भारत में मस्जिदों या अन्य धार्मिक स्थलों को विकास के नाम पर हटाना इतना आसान नहीं है। यहां के कानून धार्मिक स्थलों को विशेष सुरक्षा प्रदान करते हैं। हालांकि, अतीत में कुछ विवादास्पद घटनाएं हुई हैं, जैसे बाबरी मस्जिद विवाद, जिसने देश की राजनीति और समाज को गहराई से प्रभावित किया। वर्तमान में, भारत में धार्मिक स्थलों से जुड़े किसी भी विवाद को न्यायालय के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया जाता है। यह सऊदी अरब के मॉडल से बिल्कुल अलग है, जहां शासकों का निर्णय अंतिम होता है।
सऊदी अरब में मस्जिदों को डिवेलपमेंट के लिए हटाने का निर्णय शासकों की प्राथमिकता पर आधारित होता है, जबकि भारत में ऐसा कदम उठाने के लिए सख्त कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। दोनों देशों का दृष्टिकोण उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ढांचे को दर्शाता है।