क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991? जिस पर 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट लेगा बड़ा फैसला लेगा?
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991, जो धार्मिक स्थलों की 1947 की स्थिति को बनाए रखने के लिए लाया गया था, अब विवादों में है। सुप्रीम कोर्ट 12 दिसंबर को इस कानून की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई करेगा। हिंदू पक्षों ने दावा किया है कि कई मस्जिदें प्राचीन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हैं और इनका सर्वेक्षण किया जाना चाहिए।
भारत में धार्मिक स्थलों का इतिहास हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। इन स्थलों से जुड़े विवाद समय-समय पर देश की राजनीति, समाज और न्यायपालिका को चुनौती देते रहे हैं। इन्हीं विवादों को रोकने के लिए प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 (Places of Worship Act 1991) को लागू किया गया था। यह कानून पूजा स्थलों की ऐतिहासिक स्थिति को संरक्षित करने के उद्देश्य से बनाया गया था। लेकिन समय के साथ यह कानून खुद विवादों में घिर गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 12 दिसंबर 2024 की तारीख तय की है। आइए, इस कानून की गहराई और इससे जुड़े विवादों पर एक नजर डालते हैं।
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 का परिचय
1991 में जब यह कानून पारित किया गया, उस समय देश में राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक तनाव को बढ़ा दिया था। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने इस कानून को संसद में पेश किया। कानून का मुख्य उद्देश्य यह था कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में था, उसे वैसा ही बनाए रखा जाए। इस कानून ने यह स्पष्ट किया कि कोई भी धार्मिक स्थल 1947 की स्थिति में ही रहेगा। उसे किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदला नहीं जा सकता। इस कानून का उल्लंघन करने पर सख्त सजा का प्रावधान है। हालांकि, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को इस कानून से अलग रखा गया था, क्योंकि वह मामला पहले से ही अदालत में लंबित था।
अब आपके मन में यह सवाल भी होगी कि आखिर यह कानून क्यों बना? दरअसल 1980 और 1990 के दशक में धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद बढ़ रहे थे। हिंदू और मुस्लिम पक्षों के बीच तनातनी ने कई बार हिंसा का रूप ले लिया था। राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के मुद्दे ने इन विवादों को और उग्र बना दिया। तब सरकार ने यह महसूस किया कि अगर धार्मिक स्थलों की स्थिति को लेकर कोई स्पष्ट कानून नहीं बनाया गया, तो भविष्य में यह मुद्दा और भी गंभीर हो सकता है। यही कारण था कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट लाया गया।
अधिनियम के मुख्य प्रावधान
इस कानून के तहत 1947 की स्थिति को बनाए रखने का आदेश दिया गया। धार्मिक स्थलों को लेकर नए विवाद खड़े करने पर प्रतिबंध लगाया गया, और साथ ही किसी भी धार्मिक स्थल को तोड़ने, बदलने या उसे दूसरे धर्म के स्थल में परिवर्तित करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है। यह कानून इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि यह देश की धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने का एक प्रयास था। जबकि हाल के वर्षों में यह कानून कई विवादों का केंद्र बन गया है। हिंदू संगठनों का दावा है कि देश में कई मस्जिदें प्राचीन हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हैं। इन संगठनों ने इन मस्जिदों का सर्वेक्षण करने और मंदिरों को पुनर्स्थापित करने की मांग की है।
कुछ प्रमुख विवादित स्थल
वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद: यहां शिवलिंग मिलने का दावा किया गया।
मथुरा की शाही ईदगाह: इसे भगवान कृष्ण का जन्मस्थान बताया गया।
अजमेर शरीफ दरगाह और संभल की जामा मस्जिद: यहां भी प्राचीन हिंदू मंदिरों के अवशेष होने का दावा किया गया।
सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं क्यों?
2020 में इस कानून के खिलाफ पहली याचिका दायर की गई। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह कानून धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
इतिहास को दबाने का प्रयास है। हिंदू समुदाय को उनके धार्मिक स्थलों पर दावा करने से रोकता है। अब सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई के लिए एक विशेष पीठ का गठन किया है।
12 दिसंबर की सुनवाई का महत्व
भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी। यह सुनवाई इस मायने में अहम है कि इससे यह तय होगा कि क्या यह कानून संविधान के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है? क्या धार्मिक स्थलों पर दावा करने का अधिकार सुनिश्चित किया जाना चाहिए? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या देश में धार्मिक सौहार्द बनाए रखने के लिए यह कानून जरूरी है?
हालांकि समर्थकों का तर्क है कि यह कानून देश की धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए जरूरी है। 1947 की स्थिति को बनाए रखना ऐतिहासिक विवादों को खत्म करने का एकमात्र तरीका है। यह धार्मिक स्थलों पर अनावश्यक विवादों को रोकता है। जबकि आलोचकों का तर्क है कि यह कानून हिंदुओं को उनके धार्मिक स्थलों पर दावा करने से रोकता है। यह इतिहास के साथ अन्याय है। किसी भी पूजा स्थल के वास्तविक इतिहास का पता लगाने के लिए इसे खत्म किया जाना चाहिए।
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 भारतीय समाज के धार्मिक और सांप्रदायिक संतुलन को बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। लेकिन समय के साथ, यह कानून खुद विवादों में घिर गया है। अब सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस कानून की वैधता और इसकी प्रासंगिकता को तय करेगा। 12 दिसंबर की सुनवाई का इंतजार न सिर्फ कानूनी विशेषज्ञ कर रहे हैं, बल्कि आम जनता भी इस पर नजरें गड़ाए हुए है। यह फैसला केवल एक कानून का भविष्य तय नहीं करेगा, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप और सांप्रदायिक सौहार्द के भविष्य को भी दिशा देगा।