जब 1971 में इंदिरा गांधी ने अमेरिका को दिया करारा जवाब, जानें इंदिरा गांधी और ज़ेलेंस्की की कूटनीति में क्या अंतर है?
आज जब यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को अमेरिका से अपेक्षित समर्थन नहीं मिल रहा, तब 1971 के युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी की कूटनीति को याद करना ज़रूरी हो जाता है। इंदिरा गांधी ने न केवल अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का डटकर सामना किया, बल्कि उनकी उपेक्षा का करारा जवाब भी दिया। उन्होंने अमेरिका के दोहरे मापदंड पर सवाल उठाए और पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए रूस के साथ मजबूत गठजोड़ किया।

दुनिया की राजनीति में कुछ नेता ऐसे होते हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर हो जाते हैं। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन्हीं में से एक थीं। उनका नेतृत्व, कूटनीतिक कौशल और अदम्य साहस वैश्विक राजनीति में भारत को एक मजबूत स्थिति में ले गया। वहीं, अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की का नेतृत्व एक अलग परिस्थिति में सामने आया है।
यूक्रेन-रूस युद्ध और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की तुलना सीधे तौर पर नहीं की जा सकती, लेकिन कूटनीति, वैश्विक संबंधों और नेतृत्व की दृढ़ता के संदर्भ में दोनों मामलों में कुछ समानताएँ और महत्वपूर्ण सबक जरूर लिए जा सकते हैं।
जब भारत ने अमेरिका को दिखाईं आंखें
1971 की जंग भारत के इतिहास का सबसे निर्णायक मोड़ थी। इस युद्ध ने बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) को एक स्वतंत्र देश बनाया और भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई। इस पूरे घटनाक्रम में इंदिरा गांधी का नेतृत्व अतुलनीय था। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। साल 1971 के जंग के दौरान अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते बेहद मजबूत थे। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर खुलकर पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे। और इसलिए नवंबर 1971 में इंदिरा गांधी अमेरिका एक आधिकारिक यात्रा पर गईं। यह यात्रा सीधे तौर पर भारत-पाकिस्तान युद्ध से जुड़ी थी। यह यात्रा उस समय हुई थी जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर था और पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में पाकिस्तान की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के कारण भारत के लिए एक गंभीर शरणार्थी संकट खड़ा हो गया था। इंदिरा गांधी अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे अत्याचारों की गंभीरता समझाने के लिए इस यात्रा पर गई थी, ताकि उनसे कूटनीतिक समर्थन हासिल कर सकें। वह चाहती थीं कि अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव बनाए ताकि एक राजनीतिक समाधान निकाला जा सके और युद्ध को टाला जा सके।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि उन्हें निक्सन ने व्हाइट हाउस में 42 मिनट इंतजार कराया गया। जो यह केवल एक संयोग नहीं था, बल्कि अमेरिका द्वारा एक सोची-समझी रणनीति थी, जिससे यह दिखाया जा सके कि भारत अभी भी एक 'कमजोर' देश है और उसे अमेरिका के अनुसार ही चलना चाहिए। हालांकि इस यात्रा के दौरान ही इंदिरा गांधी ने इस अपमान का जवाब उसी अंदाज में दिया। अगले दिन जब राष्ट्रपति निक्सन ब्लेयर हाउस में इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे, तो उन्हें भी ठीक 42 मिनट का इंतजार करवाया गया। यह महज प्रतीकात्मक जवाब नहीं था, बल्कि एक महत्वपूर्ण संदेश था कि भारत किसी के दबाव में नहीं आने वाला। इस यात्रा में इंदिरा गांधी को अमेरिका कोई ठोस समर्थन नहीं मिला।
1971 में अमेरिका का 7वां बेड़ा और इंदिरा की रणनीति
इस यात्रा के बाद इंदिरा गांधी ने फैसला कर लिया कि अब भारत को युद्ध के लिए तैयार रहना होगा। उन्होंने रूस के साथ पहले से ही एक मित्रता संधि (Indo-Soviet Treaty of Peace and Friendship) पर हस्ताक्षर कर लिए थे, जिससे भारत को सुरक्षा की गारंटी मिल गई। जब पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को भारतीय एयरबेस पर हमला किया, तो 16 दिसंबर 1971 को भारतीय सेना ने ढाका पर कब्जा कर लिया , तब अमेरिका ने भारत को धमकाने के लिए अपना सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेज दिया। जैसे ही अमेरिका का सातवाँ बेड़ा भारत की ओर बढ़ा, रूस ने अपनी परमाणु पनडुब्बियाँ हिंद महासागर में तैनात कर दीं। अमेरिका को पीछे हटना पड़ा, और पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इंदिरा गांधी का यह निर्णय भारत की सर्वश्रेष्ठ कूटनीतिक जीतों में से एक माना जाता है।
ज़ेलेंस्की की अमेरिका पर निर्भरता और निराशा
अब तुलना करें यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की स्थिति से। 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो शुरुआत में अमेरिका और पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को हरसंभव मदद का भरोसा दिया। नाटो (NATO) देशों ने कहा कि वे रूस के खिलाफ यूक्रेन के साथ खड़े होंगे। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध लंबा खिंचता गया, अमेरिका और पश्चिमी देशों का समर्थन सीमित होने लगा। डोनाल्ड ट्रंप ने तो खुले तौर पर कह दिया कि अगर वे फिर से राष्ट्रपति बने तो वे यूक्रेन को समर्थन नहीं देंगे।
भारत से लेना चाहिए सबक
हाल ही में ज़ेलेंस्की जब अमेरिका गए, तो राष्ट्रपति जो बाइडन से उनकी मुलाकात की परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग थीं। बाइडन प्रशासन यूक्रेन को अतिरिक्त आर्थिक सहायता देने में हिचकिचा रहा था। यूक्रेन की सबसे बड़ी गलती थी अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता। जब रूस ने हमला किया, तो ज़ेलेंस्की को लगा कि नाटो तुरंत दखल देगा और रूस को पीछे हटने पर मजबूर कर देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब ज़ेलेंस्की यूरोप से लेकर अमेरिका तक हर जगह मदद के लिए दौड़ लगा रहे हैं, लेकिन स्थिति बदल चुकी है। ज़ेलेंस्की पूरी तरह से अमेरिका और नाटो पर निर्भर रहे। जब सहयोगी देशों ने कंधे उचकाए, तो उनके पास कोई ‘प्लान B’ नहीं था। ज़ेलेंस्की की नीतियाँ रूस को रोकने में विफल रहीं, और वे बार-बार पश्चिमी देशों से सहायता मांगते नजर आए। यूक्रेन ने अपनी रूस-यूरोप कूटनीति को ठीक से नहीं संभाला और अमेरिका की भरोसेमंद नीति पर निर्भर रहा।
आज भारत वैश्विक राजनीति में ‘ग्लोबल साउथ’ का नेता बनकर उभर रहा है। लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका, रूस और चीन की राजनीति में संतुलन बनाकर चलना जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को देखें, तो वे किसी एक पक्ष में पूरी तरह से झुकते नहीं हैं। अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हैं, लेकिन रूस से दोस्ती भी नहीं तोड़ते। चीन के साथ विवाद होते हैं, लेकिन आर्थिक संबंधों को पूरी तरह खत्म नहीं करते। यह वही ‘स्वतंत्र कूटनीति’ है जो इंदिरा गांधी के दौर में देखी गई थी।
इंदिरा गांधी ने अमेरिका की धमकियों के बावजूद आत्मनिर्भर नीति अपनाई और युद्ध जीतकर दिखाया। जबकि ज़ेलेंस्की पूरी तरह अमेरिका और पश्चिम पर निर्भर रहे, और जब समर्थन कम हुआ, तो उनकी स्थिति कमजोर हो गई। यूक्रेन-रूस युद्ध ने यह साबित कर दिया कि केवल ताकतवर देशों का समर्थन जीतने से कोई देश सुरक्षित नहीं हो जाता। अगर नेतृत्व मजबूत और रणनीति ठोस हो, तो छोटी ताकतें भी दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों को झुका सकती हैं, जैसा इंदिरा गांधी ने किया था।