कभी महाराष्ट्र की राजनीति के बेताज बादशाह रहे शरद पवार क्यों गुमनामी की तरफ बढ़ रहे ? आखिर कैसे हुई हार ?
एक समय महाराष्ट्र की राजनीति का दुर्जेय मराठा रहे शरद पवार अब गुमनामी की तरफ बढ़ रहे हैं। उम्र के बढ़ते पड़ाव के साथ मानो ऐसा लग रहा कि बस अब बहुत हो गया। अब राजनीति से संन्यास लेने की जरूरत है। उनके संन्यास की एक और बड़ी वजह है कि उनकी उम्र भी अब अधिक हो रही है।

महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनते ही कभी राजनीति के बेताज बादशाह रहे शरद पवार का भी दौर लगभग खत्म हो चुका है। कभी एक ऐसा भी दौर था। जब इस नेता ने यहां की राजनीति को दूसरी पार्टी और नेताओं के लिए असंभव बना दिया था। एक समय महाराष्ट्र की राजनीति का दुर्जेय मराठा रहा। यह नेता अब गुमनामी की तरफ बढ़ रहा है। उम्र के बढ़ते पड़ाव के साथ मानो ऐसा लग रहा कि बस अब बहुत हो गया। अब राजनीति से संन्यास लेने की जरूरत है। तो चलिए जानते हैं शरद पवार की राजनीतिक दौर की कहानी। कैसे इनकी पार्टी इस चुनाव में परास्त हुई ? क्या बड़ी वजह रही ? क्या शरद पवार के राजनीतिक करियर पर विराम लग गया है ? ऐसे कई सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
27 साल की उम्र में पहली बार सबसे विधायक बने
शरद पवार ने अपनी राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक सहकारी नेता के रूप में की थी। साल 1960 के अंत में वह 27 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने। इसके करीब 11 साल बाद वह 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री भी बने। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में वह कई दलों का हिस्सा रहे। 1990 के दशक तक वह कांग्रेस के प्रभावशाली नेता माने जाते थे। लेकिन बाद में उन्होंने अपनी खुद की पार्टी एनसीपी बनाई। शरद पवार ने अपनी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। इससे साफ जाहिर होता है कि उनका कांग्रेस के साथ रिश्ता कितना मजबूत है। जो आज तक जारी है। एनसीपी शरद पवार गुट इस चुनाव में सिर्फ 10 सीटें जीतने में कामयाब रही। शरद पवार ने यूपीए सरकार में कई अहम मंत्रालय भी संभाले हैं। पीएम मोदी के दशकों के विजयी अभियान को भी रोकने के लिए शरद पवार ने 2024 चुनाव में बड़ी भूमिका निभाई थी।
मराठा की राजनीति में शरद पवार का रहा है दबदबा
शरद पवार की बनाई गई पार्टी एनसीपी मुख्य रूप से मराठा पार्टी थी। इस पार्टी को जाति के आधार पर ही बनाया गया था। इस पार्टी की मराठावाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में महत्वपूर्ण भूमिका थी। पार्टी ने मराठाओं के प्रभुत्व के लिए बहुत काम किया और उन्हें काफी मजबूत किया। इसके साथ सीमांत और मुसलमानों से कम कद के नेताओं को भी तैयार किया। शरद पवार ने कभी छोटे समूहों को समायोजित नहीं किया। पवार का राजनीतिक जीवन और सफलता भी सहकारी क्षेत्र के नियंत्रण पर आधारित थी। इसका उद्देश्य सहकारी समितियों से जाति भावना को बढ़ावा देना। मराठा जाति की शक्तियों को बढ़ाने के लिए भी इन्होंने काफी काम किया।
शरद पवार के भतीजे ने ही दिया धोखा ?
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के करीब डेढ़ साल पहले उनके भतीजे अजित पवार पार्टी से अलग हो गए। पार्टी 2 गुटों में बंट गई। अजित को शरद पवार ने ही राजनीति के मैदान में उतारा था। लेकिन अजित अधिकतर विधायकों को अपने साथ लेने में कामयाब रहे और बीजेपी के साथ गठबंधन कर सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। उन्होंने हाल ही के विधानसभा चुनाव 41 सीटों पर जीत दर्ज की। अजित के अलग होने से शरद पवार की राजनीति मानो धूमिल सी पड़ गईं। जो पावर और दबदबा शरद का था। वह भी फीका पड़ने लगा। महाराष्ट्र की जनता ने भी शरद को ठुकरा दिया। यही वजह है कि सिर्फ 10 सीटों पर पार्टी सिमट कर रह गई। बल्कि उनके भतीजे 41 सीटों के साथ एक नए सितारे के रूप में सामने आए। शरद पवार की राजनीति पर विराम लग चुका है। इसमें एक और बड़ी वजह यह भी है कि शरद पवार उम्र से भी मात खा रहे हैं। हाल ही में उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने पर भी अपने बयान दिए थे। ऐसे में मराठा की राजनीति का बेताज बादशाह जल्द ही अपनी राजनीतिक पारी पर विराम लगा सकता है।
परिवार के हाथों ही गंवाई अपनी जातिगत पूंजी
सहकारी और दलीय राजनीति में शरद पवार के प्रभुत्व की वजह से महाराष्ट्र को मराठा राष्ट्र कहा जाता है। मराठाओं को बीते कुछ सालों में जो लाभ एनसीपी ने पहुंचाया है। उसे कम नहीं आंका जा सकता। जिस जाति की पूंजी को शरद पवार ने बचा कर रखा था। उसे उनके भतीजे अजित पवार ने हथिया लिया। कृषि संकट का मतलब मध्यम और छोटे मराठा किसानों के लिए आर्थिक हालात हैं।
एक ही जाति के भरोसे टिके रहना शरद पवार की हार का बड़ा कारण रहा
जिस तरीके से हरियाणा में कांग्रेस ने सिर्फ एक जाति जाट पर भरोसा किया और हार का सामना करना पड़ा। ठीक उसी प्रकार शरद पवार ने भी सिर्फ मराठियों को ही टारगेट किया। जो हार का बड़ा कारण बनी। बीजेपी के आने से हिंदुत्व के तहत राष्ट्रवादी हिंदू धर्म की राजनीति देखने को मिल रही हैं। बल्कि जाति आधारित संचालित पार्टियां खत्म हो रही हैं।